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…वे गुलमोहर से झरते गए

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1)
…वे गुलमोहर से झरते गए

पत्थर बंदूक बारूद और दरमियां बढते गए
जमीं के नक्शे सुर्ख हो इतिहास रंगते गए ।
जिंदगी और मौत बीच आशियां उजड़ते गए
कुदरत सिसक रही वे गुलमोहर से झरते गए ।

2)

रंजिश की बर्फ

अब तक पिघली नहीें
रंजिश की बर्फ
क्यों हुआ इतना सर्द
कश्मीर का दर्द ।

रफ्ता रफ्ता चुका रहे
बहते लहू से कर्ज
हौले हौले पड़ते पन्ने
इतिहास के जर्द ।

कौन से पन्नों से फिर
जमीं जन्नत की सुर्ख
सरहद पार से आते
कश्मीर मेे दहशत गर्द ।

रूठो न मुझसे बाबू जी
करती थी कली अर्ज
गमगीन तराने से
कुदरत निभा रही फर्ज ।

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