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किसी भी मनुष्य के साथ जाति , लिंग ,भाषा ,धर्म या किसी भी तरह का भेदभाव करना बेहद अमानवीय है .परंतु अगर यह भेदभाव किसी और द्वारा नहीं बल्कि स्वयं से ही किया जाए तो इसे हम किस तरह देखें …. किस पर क्षुब्ध होएं…आवाज़ किसके विरूद्ध उठाएं …. सज़ा किसे दें ???
स्त्री और पुरुष के लिए जब कभी अधिकार और कर्त्तव्य की बात होती है न्याय के तराज़ू का पलड़ा बेहद असंतुलित हो जाता है .स्त्री के परिप्रेक्ष्य में जहां कर्त्तव्य का पलड़ा इतना भारी कि ज़मीन चूम ले वहीं अधिकार का पलड़ा इतना हल्का कि आसमान में उड़ जाए और पुरुष के लिए इसका ठीक विपरीत .हैरानी तो तब होती है जब अधिकार और कर्त्तव्य के इस अस्वीकार्य असंतुलन या भेदभाव को स्त्रियां ही स्वयं के लिए सहर्ष चुन लेती हैं .
यह भेदभाव शिक्षा के अभाव से भी उपजा था .माँ अगर शिक्षित होती तो वे एक पुत्र के इंतज़ार में अनचाही पुत्रियों के मातृत्व की ज़हमत कभी ना उठाती .वे अपना निर्णय स्वयं लेती .पापा को भी छोटे परिवार के लिए समझा पाती .
माँ आज भी जीवित हैं ..बड़े भाई के पास रहती हैं.पापा को अक्सर याद करती रहती हैं … उन्होंने स्वयं के प्रति भेदभाव किया और ईश्वर ने उन्हें ही अकेला छोड़ दिया ... माँ को याद कर बहुत दुःख होता है .
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