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विजयी भव …..(शुभ नवरात्रि)

V2...Value and Vision
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vijayee bhavनारी त्याग समर्पण सेवा प्रेम की प्रतिमूर्ति मानी जाती है .वह धरती की तरह सब कुछ सहती है पर सहनशक्ति की सीमा जब टूटती है तो नारी एक नए रूप में समाज के सामने होती है.उसके इस परिवर्तन पर समाज घर परिवार हैरान हो जाता है पर यह मानने को तैयार नहीं होता कि यह परिवर्तन उसी के किये अत्याचार के ताप और अन्याय के दबाव का परिणाम है.

आज उसे कुछ याद नहीं
कि कौन सा यह साल है
पर पूछती स्वयं से क्यों
मेरी अस्मिता हलाल है ???

कल तक थी जो शांत धरा
आज वहां भयंकर भूचाल है
शान्ति की मूरत थी कभी
देख आज हाथ में करवाल है .

शोलों सी जलती हैं आँखें
लब पर एक ही सवाल है
समाज में कितनी विकृतियां
क़ानून कहाँ आज बहाल है .

क्रान्ति का जब किया नाद
नहीं बना परिवार ढाल है
परित्यक्ता है तो हुआ क्या
समक्ष समाज के विकराल है .

विडम्बना है कि वृक्ष से
आज टूटी हुई एक डाल है
नारी फिर भी है सशक्त
यह परिवर्तन मिसाल है .

बुझी किस्मत रोशन करने
हाथ में ली जलती मशाल है
दीन दुखी अबला थी कल
आज साक्षात त्रिकाल है .

चुप रहे कब तक आखिर
जब समाज का ये हाल है
शांंत दरिया के उफान पर
क्यों करे कोई मलाल है .

बदलेगी रूप तस्वीर का
जहां अन्याय का जाल है
यह कमल खिलेगा वहीं
कीचड से भरा जहां ताल है .

नाद गूंजा ‘विजयी भव” का
चहुँ और दिखे एक बवाल है
यह वक़्त बस तुम्हारा है
सबला तुमसे ही यह काल है.

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