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आप सब ने माना था ” संसद मंदिर है “

V2...Value and Vision
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आदरणीय सांसदों
आप सभी को आम जनता का सादर नमन
सांसदों के निलंबन और प्रतिक्रियास्वरूप कांग्रेस पार्टी के सांसदों का धरना जनता के समक्ष एक बहुत ही नकारात्मक संदेश प्रस्तुत कर गया .आप ने संसद ना चलने देने की ठान ली है.
क्या आप सब 2013 वर्ष के संसद के अंतिम सत्र के अंतिम दिवस को भूल गए हैं ???मैं आप सब को इस ब्लॉग के माध्यम से वह पावन दिन याद दिलाना चाह रही हूँ ……मेरे साथ फ़्लैश बैक में चलिए …..

लोकतंत्र का वही मंदिर…कई पुजारी (सांसद)…अंतिम सत्र का अंतिम दिन …अंतिम सांध्य आरती….माहौल बहुत ही पवित्र…..सौहाद्रपूर्ण ….वही शुचिता जो आम जनता के द्वारा सदा अपेक्षित होती है …ऐसा लगा नहीं कि यह वही संसद है जो अखाड़ों से रसोईघर की काली मिर्च तक का सफ़र तय कर चुका है .यही वातावरण सदन के हर काम काज के दिन भी क्यों नहीं हो पाता …मस्तिष्क बार -बार यह प्रश्न कर रहा है.सभी सांसदों और स्पीकर माननीया मीरा कुमार के लोकसभा के शीतकालीन सत्र और सत्रावसान के वक्त किये सम्बोधन ने अकबर इलाहाबादी की दो पंक्तियाँ याद दिला दीं …..

बहसें फ़िज़ूल थीं यह खुला हाल देर में

अफ़सोस कि उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में

कहीं त्रिवेणी संगम की बात…फादर ऑफ़ हाउस…सिस्टर ऑफ़ हाउस की उपाधि ..हम अपने खेतों के लिए नहीं लड़ रहे होते …देश और देश की जनता के लिए लड़ते हैं…यह मतभेद है मनभेद नहीं…हम सदन में ..लड़ते हैं बहस करते हैं सदन के बाहर बातों में इतनी मिठास होती है कि मिठाई भी फीकी पड़ जाए…वगैरह वगैरह.कुल मिलकर एक दूसरे से माफी याचना…किये गए कृत्यों का क्षोभ ..संसद बाधित होने का अफ़सोस और फिर यह निष्कर्ष भी निकाल लेना कि ‘अन्त भला तो सब भला’ .आम जनता यही तो जानना चाहती है कि आरम्भ से लेकर अंत तक भला क्यों नहीं … …तेलंगाना का मुद्दा जिस तरह से सदन को शर्मशार कर गया उससे अंत भी कहाँ भला रहा ???जनता संसद की कार्यवाही ही देखती है संसद के बाहर के रिश्तों से उसे क्या करना है…आम जनता काम काज शान्ति से होते देखना चाहती है.छोटे विद्यार्थी भी कक्षा में अध्यापक के आते ही शांत हो कर बैठ जाते हैं ..अपनी -अपनी बातों प्रश्नों को बारी-बारी से पूछते हैं ..पर हमारे लोकतंत्र की पाठशाला के विद्यार्थी शायद बगैर विद्यालयी शिक्षा के सीधे कॉलेज से आए प्रतीत होते हैं.एक सामाजिक विज्ञान की शिक्षिका रह चुकने के कारण अपने अनुभव से बता सकती हूँ कोई भी विद्यार्थी स्वेच्छा से सामाजिक विज्ञान का इतिहास विषय कभी नहीं पढना चाहता पता है क्यों …क्योंकि इतिहास युद्ध की विभीषिका का बयान करता है..पानीपत का युद्ध,हल्दीघाटी का,वाटरलू का,प्रथम महायुद्ध,द्वितीय महायुद्ध…युद्ध युद्ध और सिर्फ युद्ध…हर विद्यार्थी शान्ति की कहानी में दिलचस्पी रखता है पर हम उसे युद्ध का इतिहास पढ़ाते हैं और व्यस्क होकर जब वह लोकतंत्र के मंदिर तक में वही देखता है तब उसे इतिहास पढने पर क्षोभ होता है .जब अपनी कक्षा में मैं बुद्ध ,महावीर नानक पढ़ा रही होती थी बच्चों के चेहरे दीप्त हो जाते थे ,वे अल्पाहार अंतराल के वक्त अपना लंच बाँट कर खाते थे अपनी चीज़ें आपस में शेयर करते थे.और जब युद्ध के विषय में पढ़ाती …उस दिन खेल के मैदान या बस में बच्चे अवश्य ही मार-पीट कर लेते थे.मुझे याद है मेरी बिटिया ने जिस दिन दसवीं का इन्तहां ख़त्म किया ,खुशी से भागती हुई आयी और कहा,”माँ,मैं बहुत खुश हूँ कि अब मुझे इतिहास विषय नहीं पढना पड़ेगा .”उसकी यह साफगोई मुझे बहुत अच्छी लगी थी जानती थी माँ इतिहास की अध्यापिका है फिर भी उसने दिल की बात रख दी थी .जब आज इन सभी बातों का आकलन करने बैठती हूँ तो समझ पाती हूँ कि हर चीज़ के प्रति प्यार और नफरत ,पसंद और नापसंदगी का एक ठोस कारण एक मज़बूत आधार होता है.

तेलंगाना राज्य के गठन के विरोध का तरीका बेहद शर्मनाक रहा..रेल मंत्री हंगामे की वज़ह से अपना बजट भाषण पूरा ना कर पाये,संसद में ही कभी नोटों के बण्डल लहराये गए थे.तब भी इसकी भतर्सना हुई थी पर भविष्य के आचरण और सदन की गरिमा बरकरार रखने के लिए कोई सीख ली गई ऐसा नहीं हो सका.१५ वीं लोकसभा के १५ सत्रों में मात्र 276 घंटे का समय विधेयकों पर चर्चा के लिए दिया गया जो मात्र १३.३ % रहा.आम जनता और आज के संवेदनशील विद्यार्थी यह सब देख कर लोकतंत्र के गुणतंत्र के ना होने से दुखी होते हैं.भले ही सांसदों ने स्पीकर मीरा कुमार जी की तारीफ़ की कवायद पूरी की पर मीरा जी ने समस्त उपलब्धियों का ज़िक्र करने के साथ यह भी कहा ,”हमारा लोकतंत्र विश्व का विशाल लोकतंत्र है इसे उत्तम और समावेशी भी होना चाहिए मैं बेहद व्यथित हुई जब बगैर काम काज के सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती थी.मेरा विश्वास है कि सदन में कर्णभेदी कोलाहल के स्थान पर अकाट्य तर्कों और शब्दों का माहौल हो , बेहद अप्रत्याशित और अवांछनीय क्रिया कलापों ने सदन के निर्बाध संचालन और काम काज को पंगु किया…इस सदन के पास अथाह आतंरिक शक्ति है जो इसे चलाती है पर इसका यह अर्थ कदापि अहीं कि हम इस शक्ति को आहत करें जो इस देश के सीधे और सच्चे लोगों से मिली है.”उनकी लिखी और उस दिन पढ़ी चार पंक्तियाँ बहुत कुछ प्रश्न छोड़ जाती है…

होने दो घन घोर गर्जना

तूफानों को आने दो

जन्म की नहीं कर्म की करो अर्चना

बाकी सब जाने दो

सदन में फिर ऐसे माहौल ना बने क्या सांसद इस बात के लिए कृत संकल्प हुए ?

क्या उन्हें साथी सदस्यों के किये का सच में आत्मबोध था या यह महज़ औपचारिक शुभकामना भाषण था?

क्या १६ वीं लोकसभा ‘अब लौं नसानी अब ना नसैहों’ को स्वीकार कर लोकतंत्र और विवेकतंत्र की राह चल सकेगा?

संसद का काम बाधित होने के लिए अफ़सोस करने वाले ही क्या इसके लिए किंचित मात्र भी जिम्मेदार नहीं ‘घर को आग लग रही घर के ही चिराग से’

काश !!!!!यह फ़िज़ा संसद की प्रत्येक ईंट में कुछ इस कदर समा जाती कि भविष्य में कोई भी अवांछनीय अप्रत्याशित घटना होने के पहले ही वे ईंट चीत्कार कर कह उठती ‘”रूको, याद करो विदाई भाषण में इसी मंदिर में आप सबों ने किन बातों का शंखनाद किया था ….”और संसद की गरिमा पर तनिक भी आंच नहीं आती...जनता के सरोकार से जुडी समस्याएं कुछ इसी तरह हल होतीं जैसे ईश्वर माली और कुम्हार दोनों के सरोकारों से जुड़कर यथासमय ,यथानुसार और यथोचित ही वर्षा और धूप का उपहार देता है. सदन जनता के मतों के महत्व का कायल हुआ जा रहा था . हंसते मुस्कराते चेहरे ..खुशनुमा माहौल में यह भी कहा गया ‘हमें बर्बादी का कोई गम नहीं …गम है बर्बादी का क्यों चर्चा हुआ.अर्थात लगभग सभी माननीयों ने अंतिम सत्र के अंतिम दिन हंसते मुस्कराते हुए विदाई भाषण दिया ….सदन के काम काज बाधित होने पर क्षोभ और ग्लानि महसूस की .पर यह ग्लानि तभी सार्थक है जब वह दिल को झकझोर दे ..दृढ संकल्प बन जाए कि अब यह देवालय ५४५ की संख्या के किसी भी एक के द्वारा शर्मशार नहीं होगा …व्यक्ति कितना भी अच्छा हो पर उसकी अच्छाई का टिकाऊपन उस समूह से अवश्य जुडी होता है जिसका वह अंश होता है …एक बूँद अमृत पूरे जल को भले प्रभावित ना करे पर एक बूँद विष पूरे जल को विषाक्त कर देता है .अतः सदन की गरिमा प्रत्येक बूँद के अमृत होने से ज्यादा इस बात पर जोर देनी चाहिए कि एक भी बूँद विष ना हो.

हम सब से ‘बस यही तो भूल हो जाती है बहस और झगड़ों में उम्र निकाल देते हैं जब अंत आता है आंसू बहाते हैं क्या वे अनमोल वक्त वापस ला पाएंगे ?अंतिम वक्त में बिल पास कराने की ज़द्दोज़हद …कुछ बिल रह गए …कुछ बिल पास होकर मील का पत्थर साबित हो जाएंगे.जो इच्छा शक्ति तेलंगाना के लिए दिखाई गई वही महिला आरक्षण बिल के लिए क्यों नहीं दिखी .यह क्या सन्देश देता है कि ऐसे बिलों को पास कराने के लिए भी मसल्स पॉवर चाहिए ?

बात-बात पर बहस कोई किसी की ना सुनता था .लोकतंत्र में जनता प्रतिनिधियों को चुन कर भेजती है कि वे सत्ता पक्ष प्रतिपक्ष में बैठ कर परस्पर संवाद कर देश की समस्याओं का लोकतांत्रिक समाधान करेंगे.सभा शब्द ही सभ्य से जुडी है पर सदन में सभ्य बैठे ज़रूर मगर ….सभ्यता पीछे छूट गई संसद के बाहर रह गई आरोप-प्रत्यारोप,हुड़दंग,काली मिर्च स्नान,माइक और शीशा तोड़ देना कितनी गलत छवि छोड़ गया यह सदन …क्या यह शुभकामना और माफी माँगने से भर जाएगा ???क्या भविष्य में ऐसा कभी ना होगा ???जनता को यह आश्वासन शत प्रतिशत दिया जा सकता है ?देश का लोकतंत्र विश्व का सबसे विशाल लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है लोग आशा भरी निगाहों से इस लोकतंत्र को देखते हैं पर हाल की घटनाओं को देख कर दुनिया के नन्हे लोकतंत्र भी यही सोच रहे होंगे …

उनके घर के अँधेरे बड़े भयानक हैं

जिनके सारे शहर में चिराग जलते हैं.(एक मशहूर शायर का शेर है )

आम जनता जब ऐसी अव्यवस्था ,हिंसा लोकतंत्र के मंदिर में देखती है तो उसे देवालय का अर्थ ही समझ में नहीं आता जहां गरीबी,बेरोजगारी,यौन हिंसा,महिला उत्पीड़न,अविकास भ्रष्टाचार जैसी कई दानवीय समस्याएं मुंह बाए खड़ी हों उनका वध ज़रूरी हो वहा सांसद ही इंसानियत छोड़ बैठे तो आम जनता क्या करे ?

सदन तो एक ऑर्केस्ट्रा की तरह होना चाहिए जहां बांसुरी व्यक्तिगत रूप में कितनी भी सुरीली बजती हो पर उसे तबला,बैंजो,सिंथेसाइज़र ,गिटार सितार वायलिन सबसे सुर मिला कर ही बजना होगा अन्यथा पूरे ऑर्केस्ट्रा के बेसुरा होने की सम्भावना बढ़ जायेगी.सदन एक स्पेकट्रम की तरह होना चाहिए जिसके सात विभिन्न रंग हैं पर जब सात विभिन रंग सार्थक निर्णयों के वर्तुल में घूमते हैं तो बस एक रंग दिखाना चाहिए शुभ्र , उज्जवल, सफ़ेद रंग .बहस सार्थक,विचारणीय और शांतिपूर्ण भी हो सकती है.

एक विशाल लोकतंत्र में आम जनता बहुत भ्रमित और भटकाव की स्थिति में है….वह १६ वीं लोकसभा को बेहतर ढंग से चलना देखना चाहती है .

सदन में हंगामा बाहर बोले मीठे बोल

जो बाहर,भीतर भी क्यों ना वही मेलजोल

सदन के जो पल थे अत्यंत अनमोल

उसके व्यर्थ होने की क्यों जनता चुकाए मोल ???

वापस वर्त्तमान मानसून सत्र में लाती हूँ .विपक्षी दल अगर यह कहती है कि पिछले वर्ष भाजपा ने भी संसद को बाधित किया था तो यह तो बेहद बचकानी बात है.संसद की कार्यवाही ना तो बच्चों के बीच का कट्टी मीठी खेल है ना ही भारत पाक के बीच होने वाला क्रिकेट मैच …..आदरणीय सांसदों जनता के अनमोल धन और वक़्त को ज़ाया ना करें ….विकास के मुद्दों पर सार्थक बहस करें , समस्या का समाधान निकालें और परिपक्वता का परिचय दें.आज ही ज़ी न्यूज़ चैनल में देख रही थी दिवंगत अब्दुल कलाम जी भी संसद के बाधित होने से बेहद दुखी थे और इसका समाधान युवा को बताना चाहते थे ….फिर कहा था जब समाधान मैं ही नहीं जानता तो इन्हे क्या बताऊंगा !!!आप सबों ने गत वर्ष संसद के अंतिम सत्र के अंतिम दिन जो सौहाद्र दिखाया था क्या वह सब एक नाटक था ?? आप सब से आम जनता की अपील है कि संसद की गरिमा को बनाये रखें ताकि हम अपने लोकतंत्र के मंदिर के पुजारियों पर विश्वास और श्रद्धा रख सकें .

आशा और विश्वास के साथ
आम जनता

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