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तुम्हे अपने जैसा बनाना
कभी चाहा ही नहीं मैंने
तुम्हारा आकाश
ज़मीन तुम्हारी
ब्रह्माण्ड तुम्हारा
मुट्ठी तुम्हारी
मुझसे बेहद अलग हैं
तुम्हारे अनुभव
संभावनाएं तुम्हारी
तुम्हारे सपने
आँखें तुम्हारी
तुम्हारा क्षितिज
मुझसे बहुत आगे है
मेरी प्यारी बिटिया ……
अक्श तुम में
ज़रूर देखती हूँ मैं अपना
पर चाहत है …देखूं तुझे
तेरी ही सम्भावनाओं में
क्योंकि ….यूं भी
किसी को बदलना
अपने अनुसार
कभी चाहा ही नहीं मैंने
जो जैसा मिला
पूर्णता से स्वीकार लिया
ताकि पहचान रख सके
मेरा हर अज़ीज़
अपने ही अनोखेपन में .
प्रिय ब्लॉगर साथियों/पाठकों
बाल दिवस के अवसर पर इस अनुपम मंच से जुड़े सभी परिवार के प्रत्येक बच्चे और दुनिया के विशाल आँगन के हर कोने में बसे बच्चों को बहुत सारा प्यार और आशीर्वाद.
प्रत्येक बच्चा स्वयं में अनोखा होता है असीमित संभावनाएं लिए वह इस धरती पर जन्म लेता है पर उन संभावनाओं को मूर्त रूप देने के लायक उसे वातावरण नहीं मिल पाता.मैं अक्सर सोचती हूँ कि प्रत्येक बच्चा अगरबाय चांस नहीं बाय चॉइस ( by choice ;not by chance )होता तो शायद उनकी संभावनाओं को मूर्त रूप देना कितना आसान होता.पर यह हमारी विडम्बना ही है कि हमारे समाज में अधिकाँश बच्चे सामाजिक दबाव ,परम्पराओं और धर्म जनित आवश्यकताओं के वशीभूत जन्म लेते हैं.कुछ अवैध बच्चे जो किसी पाशविक प्रवृति की भयानक भूल से उपजे होने के कारण तिरष्कृत और पशुवत व्यवहार के बीच ज़िंदगी गुज़ारने को मज़बूर होते हैं . जिन परिवारों में खाने के लाले पड़े होते हैं वह ‘जितने बच्चे ;काम करने के लिए उतने हाथ’ की विचारधारा के साथ बच्चों का जन्म स्वीकारता चला जाता है,यह भूल जाता है कि आने वाला हर बच्चा खाने के लिए मुंह ,सोचने विचारने के लिए एक मस्तिष्क ,और महसूस करने के लिए एक ह्रदय भी साथ लाता है.
इतिहास गवाह है किसी भी युद्ध का शिकार अबोध मासूम बच्चे ही सबसे ज्यादा होते हैं चाहे वे यौन उत्पीड़ित हुए हों ,यतीम या अनाथ पर यह सच है कि शक्ति के वीभस्त प्रदर्शन का उत्सव बच्चों की दबी चीख और सिसकियों के साथ ही मनाया जाता रहा है .इतिहास भरसक कोशिश करता है कि अपनी लेखनी इस विषय पर ना चलाये क्योंकि इसका मानना है कि बच्चों से इतिहास क्या बनाना वे तो भविष्य निर्माता होते हैं.बस यहीं भारी चूक हो जाती है.बच्चे बहुत सुलझे अपने उम्र के अनुसार समझदार और संवेदनशील होते हैं.यह सच कहा जाता है समझदारी उम्र से नहीं आती उम्र से तो सिर्फ चालाकी विकसित होती है.बच्चों को उन्ही की नज़र से समझ पाना बहुत मुश्किल होता है .यही वह काम है जिसके लिए स्किल डेवलपमेंट की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती विशेष तौर पर प्रथम बच्चे के जन्म पर दूसरे और तीसरे बच्चे के जन्म पर भी नहीं क्योंकि प्रत्येक बच्चा स्वयं में अनोखा होता है जिसे उसी के अनोखे रूप में स्वीकार करने की ज़रुरत होती है जो शायद कोई अभिभावक नहीं कर पाता चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित हो.इसीलिये प्रत्येक पीढ़ी अपने आगे की पीढ़ी से खफा है और यह कवायद अनवरत जारी है.प्रत्येक बच्चे को उसकेेे संभावनाओं के संग स्वीकार करने को कोई अभिभावक तैयार नहीं है .जब कभी बच्चा अकेला बैठ जाता है हम अभिभावक प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं “क्यों अकेला है..क्या सोच रहा है..कुछ मार पीट हुई क्या?”ना जाने किन आशंकाओं से घिर हम उसके अकेलेपन को खतरे की घंटी मान लेते हैं हम यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक सृजन को अकेलेपन की दरकार होती है .एक ऐसा क्षण जब वह संवेदनशील हो अपने समस्त संभावनाओं पर विचार करता है.किसी भी महान पुरुष का जन्म दिवस या उनसे जुडी घटनाओं का उत्सव हो हम कई बाल नेहरू ,बाल गांधी बना कर अनजाने ही गलती कर जाते हैं जबकि किसी भी अस्तित्व व्यक्तित्व की पुनरावृति कभी नहीं होती यह होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि अनोखापन ही प्रकृति की सुंदरता का आधार है.बच्चे के विकास में शिक्षक अभिभावक समाज के लोगों को इस प्रकार मदद करनी है कि वह स्व व्यक्तित्व में पूर्ण विकसित हो सके.जैसा ओशो कहते हैं..” a real father , real mother real teacher will be blessing to the child.the child will feel helped by them so that he becomes more rooted in his nature more grounded more centered so that he starts loving himself rather than feeling guilty about himself .”
आधी अधूरी व्यक्तित्व वाली मानव सम्पदा को ढोने के लिए अभिशप्त होती रहेगी.
(कुछ परेशानी में उलझी होने की वजह से बाल दिवस पर इसे पोस्ट नहीं कर पाई थी.आज कर रही हूँ )
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