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वज़ूद औरतों का भी बचा कर रखिये
सिर्फ मर्दों से ही कुदरत चला नहीं करती
भी एक पुतला बना कर जलाया जाए.
एक बुद्धीजीवी स्त्री होने के बावजूद वे मंथरा जैसी दासी के बहकावे में आ गईं अपने विवेक बुद्धि से अपने परिवार के हित की बात उन्हें नहीं सूझी .स्त्रियां प्यार,समर्पण त्याग करूणा की मूरत होती हैं पर कैकेयी ने तो अपने प्यार और सेवा के बदले दशरथ जी से स्वकेंद्रित होकर मांग रखी …परिवार हित या समाज हित को विस्मृत कर गईं .जो स्वीकार्य नहीं हो सकता.आज समाज में कुछ स्त्रियों के उदाहरण मिल जाते हैं जो घरेलू सहायिकाओं के बातों में आकर अपना घर परिवार बिगाड़ बैठती हैं .कुछ अपने पति से प्रेम और समर्पण के बदले उनसे कुछ अस्वीकार्य मांग कर बैठती हैं जो परिवार के हित में सही साबित नहीं होता .कैकेयी के किरदार के द्वारा हमें यह समझने की ज़रुरत है कि हम अपने पति से ऐसी कोई मांग न करें जो परिवार के हित में न हो. एक बात यह भी गौर तलब किसीता जी के स्वर्ण मृग को देख कर उसे लाने का आग्रह करना भी हम स्त्रियों के लिए एक प्रतीकात्मक शिक्षा देता है…कोई वस्तु कितनी भी लुभावनी ,मनमोहक हो उसे हासिल करने की हमारी लालसा हमारे परिवार जनों को किसी बड़ी परेशानी में डाल सकती है.आज कुछ स्त्रियां जिन्हे आवश्यकता और लालसा में फर्क नहीं समझ आता ;सोने चांदी के आभूषणों ,आकर्षक वस्तुओं की खरीदारी के लिए या महज़ अपने शौक की पूर्ति और आपसी प्रतियोगिता के लिए घर के पुरुषों को गलत ढंग से आय अर्जित करने के लिए प्रेरित कर देती हैं. स्त्रियों को इस प्रवृत्ति से दूर रहने की आवश्यकता है . (नोट : भारतीय संस्कृति के महान आदर्श और त्याग की प्रतीक देवी सीता मेरे लिए पूजनीय हैं मैं उनके प्रति असीम श्रद्धा भाव रखती हूँ कृपया इसे सहजता से स्वीकारा जाए )नवरात्रि ,विजयादशमी जैसे पर्व त्यौहार से जुडी परम्पराओं का निर्वाह संस्कृति की शाश्वतता के लिए आवश्यक है तो इसे सही विधि से स्वपरिष्करण का साधन मानना इसे प्रासंगिक बनाये रखने के लिए अपरिहार्य है.घर परिवार समाज में सृजन का अधिकार कुदरत ने स्त्री को ही दिया है.ज़रुरत है वह सृजन के साथ परिष्करण भी करती रहे.चूँकि स्त्री भावप्रधान होती है अतः वह अपने प्यार सद्बुद्धि शक्ति से सही दिशा निर्देशन की क्षमता भी रखती है.वह समाज की प्रत्येक विकृति की कॉस्मेटिक सर्जरी करने वाली कुशल सर्जन बन सकती है ..बस ज़रुरत है एकता ,दृढ़ता और सही अर्थों में नारी शक्ति प्रदर्शन की …इस के लिए उसे पुरुषों से ना तो आचार विचार उधार लेने की ज़रुरत है ना ही खान पान और पहनावा की…वह अपने नारी स्वरुप में ही जहां खड़ी हो जाए वहां वह ना + अरि है …ना किसी की दुशमन …ना कोई उसका दुश्मन … आज ज़रुरत है स्त्री अपने बुद्धि ,विवेक ,प्रज्ञा का घर परिवार समाज के सही दिशा निर्देशन में प्रयोग करे.आज स्त्रियों के शक्ति का सूर्य स्वयं के अस्तित्व ,सुरक्षा ,मान सम्मान के प्रति एक भय संशय अनिश्चितता के मेघों से ढक गया है जिसे दूर करने के लिए एकता स्वज्ञान स्वशक्ति के भान की तेज हवा की ज़रुरत है…..
आज उसे कुछ याद नहीं कि कौन सा ये साल है
पर पूछती स्वयं से क्यों अस्मिता मेरी हलाल है ….
कल तक थी शांत धरा आज भयंकर भूचाल है
शान्ति की मूरत थी कभी अब हाथ में करवाल है …..
शोलों सी जलती आँखें लब पर एक ही सवाल है
समाज में इतनी विकृतिया कहाँ क़ानून बहाल है ….
क्रान्ति का जब करती नाद न परिवार बना ढाल है
परित्यकता हो कर भी समक्ष समाज के विकराल है …..
चुप रहे आखिर कब तक जब समाज का ये हाल है
शांत दरिया के उफान पर फिर क्यों करे कोई मलाल है…..
देख लो हर रिश्ते में वह चाहे वृक्ष से टूटी एक डाल है
बुझी किस्मत रोशन करने हाथ में ली जलती मशाल है ….
दीन दुखी अबला कब ; वह आज भी साक्षात त्रिकाल है
नारी सदियों से रही सशक्त स्वयं में ही एक मिसाल है ……
बदलती है रूप तस्वीर का जिस पर अत्याचार का जाल है
यह कमल खिल उठता वहीं कीचड से भरा जहां ताल है ….
नाद गूंजे ‘विजयी भव ‘का चहुँ ओर ऐसा एक बवाल है
यह वह हर वक़्त तुम्हारा, सबला तुमसे ही हर काल है.
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