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नरेंद्र(सितम्बर १८९३)….नरेंद्र ‘एक बार फिर’ (सितम्बर २०१४)

V2...Value and Vision
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स्वामी विवेकानंद (नरेंद्र दत्त)के आविर्भाव को तत्कालीन वर्त्तमान भी महसूस नहीं कर सका था…..पर धीरे धीरे उस सूर्य ने अपनी तेजस्वी रोशनी इस तरह फैलाई कि विश्व उस रोशनी से आज भी चमक रहा है…….तो क्या आज फिर से सभ्य जगत के पास अमृत का सन्देश पहुंचाने के लिए भारत वर्ष प्रस्तुत होने गया है ????

“अब तो भारत ही केंद्र है.हे मानव! गतकाल के लिए शोक करना छोड़ वर्त्तमान में प्रयत्न करने हम तुम्हे बुला रहे हैं ..वृथा संदेह दुर्बलता तथा दास जाति सुलभ ईर्ष्या द्वेष को छोड़ इस महायुगचक्र प्रवर्तन में सहायक बनो.” तब भी सुसुप्त जनता में से कुछ ही जागरण के लिए तैयार हुए थे.

१२ जनवरी १८६३ को जन्में नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद )को माता भुवनेश्वरी देवी शिव का प्रसाद मानती थीं.उसे रामायण महाभारत की कहानी सुनाती .पुराणों की कहानियों ने बालक पर गंभीर प्रभाव छोड़ा था.रेंद्र माता का बहुत सम्मान करते थे उनके मुख से अतीत युग के धर्मवीरों की कहानियां सुन उनका बाल मन स्वाभाविक चंचलता छोड़ ना जाने किस भाव से घंटों मंत्र मुग्ध हो जाता था .उनकी दृष्टि में जीवन एक स्वछन्द अविराम प्रवाह था.कहते हैं बालपन में कोचवान के वैवाहिक जीवन की अशांति ने उन्हें सदा के लिए विवाह से विरक्त कर दिया था.वे अक्सर बालक व युवकवृन्द को ब्रह्मचर्य के पालन में प्रोत्साहित करते हुए भाव के आवेग में दृढ़ता से कहते ,”यदि तुम काम-क्रोध आदि सैकड़ों प्रलोभनों में भी अविचल रहकर १४ वर्ष तक सत्य की सेवा कर सको तो ऐसे एक स्वर्गीय तेज द्वारा तुम्हारा ह्रदय परिपूर्ण हो जाएगा कि तुम जिसे झूठ समझोगे उस बात को कोई साधारण व्यक्ति तुम्हारे पास प्रकट करने का साहस तक ना करेगा.”पर विवाहित जीवन के उच्च आदर्श के प्रति उनमें कभी अश्रद्धा भी नहीं थी.एक बार उनसे किसी ने पूछा ,”क्या विवाह कर लेने पर धर्म का आचरण या अन्य कोई महान कार्य नहीं किया जा सकता?”उनका ज़वाब था,”क्यों नहीं,जनक ऋषि ने गृही होकर भी ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया था.”एक दिन दर्शनशास्त्री इंगरसोल ने उनसे कहा,”यह जगत एक संतरे की तरह है,जितना हो सके इसे निचोड़ कर इसका रस पीना चाहिए.जब इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि परलोक नाम का कुछ है भी तो सांसारिक सुख से वंचित क्यों रहना जहां तक संभव हो तत्परता के साथ इस जगत का उपभोग करना चाहिए.” नरेंद्र ने मृदु हास्य से ज़वाब दिया,“मुझे जगत से किसी प्रकार के भय का कोई कारण नहीं है,स्त्री,पुत्र,परिवार,संपत्ति आदि का कोई बंधन नहीं है,मेरी दृष्टि में सभी स्त्री पुरूष सामान रूप से प्रेम के पात्र हैं…सभी मेरी दृष्टि में ईश्वरस्वरूप हैं सोचो तो मनुष्य को भगवन रूप देखकर मुझे कितना आनद मिलता है,मैं निश्चिन्त होकर रस पान कर रहा हूँ तुम भी ऐसा कर देखो हज़ार गुना अधिक रस मिलेगा.”

हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में विदेशियों के भ्रमपूर्ण विश्वासों को दूर कर उसके उदार भावों का आधुनिक वातावरण के अनुकूल वैज्ञानिक युक्तियों द्वारा प्रचार करने के लिए ३१ मई १८९३ को अपने स्वातंत्र्य के गौरव से सर ऊंचा किये उन्होंने (स्वामी विवेकानंद)शिकागो प्रस्थान किया.वे कोलम्बो होते हुए सिंगापुर से हांग कांग पहुंचे सीक्यांग नदी के मुहाने से ८० मील दूर दक्षिण चीन की राजधानी कनतन शहर देख आये.वहां अनेक बौद्ध मठ देखे तथा वहां के सबसे बड़े मंदिर का दर्शन किया.प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी दो महान राष्ट्र भारत वर्ष और चीन की स्थिति की उन्होंने आपस में तुलना की और कहा,”सभ्यता की सीढ़ी पर जो चीनी व भारतवासी एक पैर भी अग्रसर नहीं हो रहे हैं उसका एक कारण उनकी गरीबी है.साधारण भारतवासी और चीनी के दैनिक जीवन में छोटी-छोटी चीज़ों का अभाव उसका नित्य प्रति इतना समय नष्ट कर डालता है कि उसे और कुछ सोचने का अवसर तक प्राप्त नहीं होता.“पर जापान को देखकर वे बहुत खुश हुए.नागासाकी,कोबी बंदरगाह,याकोहामा,ओसका,किआतो व टोकियो आदि शहरों को देखकर उन्होंने समझ लिया कि वर्त्तमान काल की आवश्यकताओं को जापानियों ने समझ लिया है.याकोहामा से अपने मद्रासी शिष्यों को एक पत्र में लिखा,”जापानियों के सम्बन्ध में मेरे मन में कई बातें आ रही हैं,एक संछिप्त पत्र में उसे प्रकट नहीं कर सकता ,परन्तु इतना कह सकता हूँ कि हमारे देश के युवकों को प्रतिवर्ष दल के दल में जापान आना चाहिए…..और तुम लोग क्या कर रहे हो?जीवन भर वृथा बकते रहते हो.आओ इन्हे देख जाओ…बेपचा कुछ अंश लगातार रटते जा रहे हो..तुम्हारा प्राण मन तीस रूपये की क्लर्की पर निछावर है…अरे,मैं कहता हूँ,क्या समुद्र में जल का अभाव हो गया है?तुम सब अपनी पुस्तकें,गाऊन विश्वविद्यालय डिप्लोमा आदि सब कुछ डूबा क्यों नहीं देते .?” आओ मनुष्य बनो.इस प्रकार वे युवाओं को झकझोरते थे.

“to ask you Swami, for your credentials is like asking the sun to state its right to shine .”

” शिकागो नगर में महिमामय मूर्ति,गैरिक वस्त्र से भूषित उन्नत शिर, मर्मभेदी दृष्टिपूर्ण आँखें ,चंचल होंठ ,मनोहर भारतीय सूर्य की तरह दीप्तमान स्वामी जी जनसमूह के मानस पटल पर दृढ रूप से अंकित हो गए थे.” विवेकानंद जी के भाषण से अमेरिकन राष्ट्र उनका मुरीद हो गया .१८९४ के ५ अप्रैल को बोस्टन इवनिंग ट्रांसक्रिप्ट ने मंतव्य दिया,” he is really a great man,noble,simple,sincere and learmed beyond comparison with most of our schlors. “

“स्वामी जी के बड़े बड़े चित्र शिकागो नगर में रास्ते रास्ते पर लगे हैं विभिन्न सम्प्रदाय के लोग इन चित्रों के प्रति भक्ति के साथ सम्मान प्रदर्शित करते चले जा रहे हैं.” अमेरिका ने सन्देश दिया,”भारत वर्ष ने स्वामी जी को भेजा है-इसलिए अमेरिका धन्यवाद दे रहा है.यदि संभव हो तो स्वामी की तरह और भी कुछ आदर्श पुरुषों को भेजने के लिए अमेरिका प्रार्थना कर रहा है..”

“भारत के हिन्दुओं ने किया क्या है ?-वे आज तक किसी जाति पर विजय प्राप्त नहीं कर सके .”

स्वामी जी ने शांत संयत हो कहा,“ नहीं कर सके !!! कहिये कि किया नहीं और यही हिन्दू जाति का गौरव है कि उसने कभी दूसरी जाति के रक्त से पृथ्वी को रंजित नहीं किया .वे दूसरों के देश पर अधिकार क्यों करेंगे ? तुच्छ धन की लालसा में ?भगवान ने हमेशा से भारत को दाता के महिमामय आसन पर प्रतिष्ठित किया है.भारत वासी जगत के धर्मगुरू रहे हैं वे दूसरों के धन को लूटने वाले रक्त पिपासु दस्यु ना थे और इसलिए मैं अपने पूर्वजों के गौरव से गर्व अनुभव करता हूँ.”

बड़े दिनों के पर्व में श्रीमती ओली बुल द्वारा आमंत्रित होकर स्वामी जी बोस्टन गए वहां ‘भारतीय नारी जाति का आदर्श’के सम्बन्ध में एक सुन्दर तथ्यपूर्ण भाषण दिया .उसे सुन कर विदूषी नारी समाज ऐसा मुग्ध हुआ कि स्वामीजी के बिना जाने ही उन्होंने उनकी माता को धन्यवाद देकर मेरी की गोद में स्थित बालक ईशा की मनोरम चित्र के साथ एक पत्र लिख भेजा “जगत के कल्याण की जननी मेरी के दानस्वरूप ईशा मसीह के आविर्भाव का दिन हम आज उत्सव के आनंद में बिता रही हैं अपने बीच आपके पुत्र को पाकर आज हम आपका श्रद्धा के साथ अभिवादन कर रही हैं.आपके श्रीचरणों के आशीर्वाद से उस दिन ‘भारत में मातृत्व के आदर्श’के सम्बन्ध में भाषण देकर उन्होंने हमारे नर नारी व बच्चों का महान उपकार किया है .उनकी मातृपूजा श्रोताओं के ह्रदय में शक्ति समुन्नत्ति की उच्चाकांक्षा जगा देगी.आपकी इस संतान में आपके जीवन व कार्य का जो प्रभाव प्रकट हुआ है उसकी सम्यक रूप से उपलब्धि करती हुई हम आपकी सेवा में अपनी आतंरिक कृतज्ञता प्रकट करती हैं.”

को अधिकाधिक प्रतिबिंबित करें .‘मैं,मेरा,मुझे ‘जैसे संकीर्ण शब्दों से जितना हो सके बचें ताकि विश्व के सबसे विशाल प्रजातंत्र के सशक्त रहनुमा की समूह में काम करने,अपने टीम को साथ लेकर पूर्ण सहभागिता की आपसी भावना से कर्म क्षेत्र में आगे बढ़ने की दिशा में कोई बाधा ना आये …क्योंकि शब्दों का बहुत महत्व होता है शब्द हमारे विचार ,हमारी भावना ,हमारे कर्त्तव्य के दर्पण होते हैं . ..हम भारतीय उनमें एक नए उदीयमान सूर्य का दर्शन  कर रहे हैं और उस प्रकाश से ऊर्जावान हो आत्म विकास ,आत्मगौरव ,स्वाभिमान के उजाले को समेट कर परिवार समाज देश को उन्नति के प्रकाशवान राहों पर ले जाने को कृत संकल्प हैं .

प्रधानमंत्री जी की अमेरिका यात्रा पर सभी भारतवासियों को हार्दिक शुभकामना .

ब्लॉग का स्त्रोत श्री सत्येन्द्रनाथ मजूमदार की पुस्तक “विवेकानंद -चरित ” है .इस अद्भुत स्त्रोत की आभारी हूँ

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