‘गंगा -गंगा जे नर कहहिं ; भूखा प्यासा कबहूँ ना रहहिं ‘
मैं यह पंक्ति पापा के मुंह से हमेशा सुनती थी.मैं उनसे पूछती थी ,गंगा गंगा क्यों ; यमुना क्यों नहीं ?” बस गंगा की गौरवमयी पावन गाथा पापा कहते नहीं थकते थे.सच ही तो है युगों से गंगा की धाराएं प्यार की धरती को सींचती रही हैं.गंगा यमुना सरस्वती की त्रिवेणी में से सरस्वती ने तो कब का साथ छोड़ दिया. और कालिया नाग सदृश प्रदूषण के विष वमन ने यमुना का रंग रूप स्वाद परिवर्तित कर दिया है.गंगा ही है जिसका जल वैज्ञानिकों के लिए भी शोध का विषय बना हुआ है कि आखिर ऐसा इस जल में क्या है जो यह कीटाणुमुक्त रहता है.आज वही गंगा व्यथित,व्यग्र और बेचैन है .गंगा शुद्धीकरण के नाम पर योजनाओं और धनराशि की बौछार हो गई पर गंगा मैली होती जा रही है …अब वक़्त आ गया है कि हम सब गंगा ‘ की’ नहीं बल्कि गंगा ‘के लिए’ प्रार्थना करें.
29 बड़े शहरों,23 छोटे शहरों और 48 नगरों से गुजरने वाली भारत देश की राष्ट्रीय नदी ‘गंगा’ को प्रदूषण मुक्त करना मोदी सरकार का महत्वाकांक्षी चुनावी वादा होने के साथ ही प्रत्येक भारतीय की एक निहायत आवश्यक आस्था से जुड़ा सवाल भी हैगंगा का गौरव सदियों से भारतीय संस्कृति का अभिन्न पहलू रहा है .गंगा की पाक साफ़ अस्मिता को पुनर्जीवित करना अत्यंत आवश्यक है .
साँझ थी ढल रही… अलंकृत नभ को कर रही अस्ताचल सूर्याभा………. गंगा में थी डूब रही नयन मेरे अपलक…. गंगा को निहार रहे मानो पतितपावनी में …. थे पाप सारे बुहार रहे दोपहर सा आलोक ना था पर रोशनी इतनी भी सही कण कण से गाथा गंगा की कुदरत में अमृत थी घोल रही मन ना माना……अंजुली भर जल अधरों से लगा लिया भ्रमित हुई खारेपन से मैं क्या गंगासागर, गंगा से मिला ‘उल्टी गंगा बहाना’ मुहावरों से निकल सत्य बन है हुआ खड़ा या कुदरत ने लेकर करवट जागरण सुप्त चेतनाओं का किया.
विकल मन के टूटे सितार सी व्यथित गंगा ही सिसक उठी गंगासागर के गंतव्य पूर्व ही प्रदूषण से मैं जूझ रही मेरी अश्रुधाराएँ ही हैं जो खारा पानी को कर रही धर्मानुष्ठान प्रार्थना ही मुझ पर अब भारी हैं पड़ रही माता कह कह कर पुत्र ही दीप सीने पर हैं जला रहे लावण्य भरी ममता जला कर मौत असमय हैं बुला रहे
गौमुख की सी वह लावण्यता फिर तुम मुझे लौटा दो पाप निज तन मन की स्व में ही रूपांतरित कर बहा दो पतित पावन तुम सब बन कर चलो ! अब मैल मेरे हरो प्रार्थना ‘मेरी’ नहीं अब प्रार्थना ‘मेरे लिए’ करो .
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