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कौवा और कोयल

V2...Value and Vision
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आज सुबह योगाभ्यास के वक़्त अजीब सी शान्ति महसूस हो रही थी…….अचानक कोयल ने अपनी कूक का पत्थर मस्तिष्क के शांत झील में फेंक दिया …विचार और भाव की तरंगें योगासन पर भारी पड़ने लगीं…….बीच में ही उठना पड़ा…विचारों का क्या है…बारिश की आस लगाए किसान को छलते बादलों की तरह कब आये कब चले जाएं ……किसान तो बादलों को पकड़ नहीं सकते ….पर मैं तो भाव और विचारों को शब्द बना जन मानस तक पहुंचा सकती हूँ और बस भाव कुछ यूँ शब्दों में पिरोती गई……

ओ कोयल….काली काली
पंचम सुर के…तानों वाली
कितना सुरीला गाती हो
अपनी कू कू से लुभाती हो
कर्कश बोल वाले कौवे से
करती तुलना दुनिया तेरी
पर की कोशिश आज तक किसने
जाए सच के तह तक भी .मैं पूछती हूँ…अमराइयों में अक्सर
गाती हो तुम क्यों छुप कर ही
डर अपने स्वरुप से ज्यादा
शायद तुझे है अंतर्मन की
तुम्हारी मीठी बोली सुनते सब
देख पाता है कालिख पर कौन
अंतस में छुपे काले मन की .
धोखा देती हो तुम
कर्कश बोल वाले , दुत्कारे जाने वाले
सीधे सपाट कौवे को
रख अपने अंडे घोंसले में उसके
छलकर इस्तेमाल कर जाती उसको .
कितना भी कर्कश हो कौवा
बेहतर है तुमसे वह
कम से कम…जगजाहिर तो है वह
नहीं रचा कोई भ्रमजाल उसने
जैसा दीखता है वैसा ही तो है वह
शायद इसलिए वह सम्मान भी पाता है
वर्ष में एक बार ही सही खोजा तो जाता है.
तुम ??????????????????
अमराइयों में छुप कर
मीठी तान देते …एक दिन थक जाती हो
अंतिम तान देकर अमराइयों में मिल जाती हो
ना अपने स्वरुप में समक्ष आती हो
ना कभी लोगों द्वारा बुलाई जाती हो
तुम्हारी मीठी बोली का
करते प्रचार अक्सर लोग
पर कौवे को लगाते हैं
ससम्मान पितृ भोग . ………………………. 

तुम्हारा छल तुम पर ही
कितना भारी पड़ता है
बिन प्रयोग हुए ही
तुम्हारा वज़ूद मिटता है.

 

……………

 

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