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‘भूख’ (लघु कथा)

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“मॉम ! लंच में क्या-क्या बना है ? ” सत्रह वर्षीया बेटी ने माँ से प्रश्न किया .लगभग उसी की उम्र की राधा जो कि उस घर के घरेलू काम काज के लिए रखी गई थी ; बर्तन धोते उसके कमज़ोर हाथ ना चाहते हुए भी क्षण भर के लिए रूक गए .काम की थकान से बोझिल उसकी आँखें बरबस ही रसोई के प्लेटफार्म पर तैयार भोजन से भरे, बेतरतीब से रखे हुए बर्तनों की तरफ घूम गईं .जूठे बर्तनों की बदबू को शिकस्त देते ….उसकी जठराग्नि को और तीव्र करते …..खूशबू बिखेरते विभिन्न व्यंजन ………वह अपनी भूख से जुड़े प्रश्न याद कर बैठी .वह भी तो भूख लगने पर अपनी माता से प्रश्न करती है पर वह प्रश्न इस प्रश्न से कितना अलग होता है. ” माँ ! घर में खाने के लिए कुछ है क्या ?.”
हम दोनों ही तो बेटियां हैं और इसके पहले एक मनुष्य हैं …..फिर हमारे प्रश्न इतने ज़ुदा क्यों है ? उसे कोई सीधा ज़वाब समझ नहीं आ रहा था. उसकी बोझिल आँखों ने शायद सुनहरे सपनों का बोझ लेने से इंकार कर दिया था .वह इसे नियति मान अपने काम में जुट गई.शायद भूख की यही अलग-अलग परिभाषा है.

(आइये एक सशक्त कदम इस दिशा में लें कि हम में से कोई भी भोजन बर्बाद ना करे ,हमें जितनी ज़रुरत हो बस उतना ही भोजन अपनी थाली में लें प्रत्येक थाली की इस छोटी-छोटी बचत से कई ज़रूरतमंद थालियां तैयार हो सकती हैं.)

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