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डर
मैं भी लिखना चाहती हूँ
बंद होठों के अनकहे शब्द
बंद साजों में सुप्त छुपे सुर
सूनी आँखों के अनबोले दर्द
झुकी कांधों के अमापे बोझ
पर क्या करुँ….
शब्द हो जाते हैं कृपण
भाव बेहद संवेदनहीन
लेखनी में लगती है जंग
स्याही हो जाती है बेरंग
सच है लेखनी उठती तो है
लिखने को बहुत सारा सच
जाने कौन सा डर है कि
है अनछुआ रह जाता कष्ट .
2) बदलाव
हम हो गए हैं कितने
तार्किक,वैज्ञानिक और प्रायोगिक
जीवन के गणित में निपुण
गणनाओं के
एक अनंत दौड़ में शामिल
परिचितों से लाभ-हानि का योग
नैतिक मूल्यों का सारा घटाव
निजी स्वार्थों का अनंत गुणा
रिश्तों का दुखदायी विभाजन
संपत्ति और रिश्तों का अनुपात
किये गए मदद के चक्रवृद्धि ब्याज
भद्दे सौदों का घिनौना प्रतिशत
और इन सब गणितीय प्रक्रिया में
कितना बदल दिया है हमने
अपने ही जीवन के
इतिहास और भूगोल को
कितना उपेक्षित किया है
अपनी ही ज़िंदगी की
कविता,नृत्य और संगीत को .
.
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