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प्रेम,प्यार,इश्क़,मोहब्बत में एक ‘अधूरे’ वर्ण की पहेली (कांटेस्ट)

V2...Value and Vision
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ब्लॉग की शुरुआत  एक ताज़ा घटना से ही करती हूँ.हमारे जान पहचान के ही एक इंजीनियरिंग के छात्र ने वैलेंटाइन डे के दिन फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली वज़ह प्रेम में असफलता मानी जा रही है.एक स्त्री ने कहा ,”किसी लड़की के चक्कर में मरा होगा ,माता-पिता के लिए थोड़े ना कोई जान देता है.”इसी बाबत चर्चा के दौरान एक युवक ने कहा ,”आँटी ,प्रेम में मरने से ज्यादा अच्छा है मार देना.”मैं युवा पीढ़ी के इस सोच से व्यथित हुई,मैंने कहा,“क्यों ,दोनों के मध्य भी तो एक राह है.तुम लोग वैलेंटाइन और प्रेम दोनों के ही अर्थ को समझ नहीं पाते.”मुझे उस लडके के असमय मौत के साथ इन युवकों की सोच और वैलेंटाइन डे की प्रासंगिकता ने कुछ सोचने को विवश कर दिया .

प्रेम में एक ना होने के दुःख से लैला-मजनूं,शीरी-फरहाद,हीर-रांझा के साथ मरने की सोच को तो मैं सिरे से खारिज़ करती हूँ पर वैलेंटाइन डे के नाम पर प्रेम के झोंके से भी थोडा गुरेज़ रखती हूँ कारण प्रेम का उत्सव मानना कभी बुरा नहीं है .वर्त्तमान द्वेष घृणा के परिदृश्य में तो यह अत्यंत प्रासंगिक है यह भारत भूमि पर बसंतोत्सव का मुख्य केंद्र बिंदु सदियों से रहा है पर प्रेम के इस पर्व के नाम पर दिखावा,व्यापारीकरण,युवाओं का अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ प्रेम के नाम पर स्वयं के जीवन और भविष्य से खिलवाड़ को मैं उचित नहीं मानती .एक दिन प्रेम का ज्वार और फिर एक दिन प्रेम के नाम एसिड अटैक…प्रेम में मर जाना …मार देना …यह युवा पीढ़ी सीख जाती है पर प्रेम का असली रूप क्या है नहीं जान पाती.
पर प्यार की वह राह क्या है..जिस पर इस कुदरती प्रेम के कदम सलीके से,सहजता से बढ़ें …जीवन के उपहार को समझते हुए …जीवन के महत्व को अपने ,अपने परिवार,समाज,देश,और विश्व के लिए ज़रूरी मानते हुए ये कदम विकास की राह पर बढ़ें ….वे लैला मजनूं की तरह फना ना हों …..ऐसी ऐतिहासिक इबारतें समाज को कोई नई दिशा ना दे सकेंगी….प्रेम में पड़ कर वैलेंटाइन डे मनाने के साथ एक अहम् बात याद रखनी है कि ‘बड़े भाग मानुष तन पावा’ प्रेम का यह एक दिन मानना उचित है कम से कम एक दिन तो दुनिया प्यार से लबरेज़ हो जाए पर इसके बाद मरने मारने और जीवन नष्ट करने की बात तो कोई प्रेम नहीं सिखाता.वे कौन से बिंदु हैं जो वैलेंटाइन डे को युवाओं के लिए प्रेम की नई सोच बना दें ….प्रेम की ऐसी कौन सी परिभाषा है जिससे रूबरू होना आज का तकाज़ा है.आज मैं इस ब्लॉग के माध्यम से ऐसे ही कई प्रश्नों के ज़वाब पर पर केंद्रित होंती हूँ….

एक संकलित कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्दृत कर रही हूँ…

चाँद अगर मिल सका ना मुझको
क्या होगा सारा उजियारा
रूठ गए यदि तुम ही मुझसे
फिर जीवन का कौन सहारा
तुम्ही सुधामय अमर प्रीती हो
तुम्ही मिलन का मधुर गीत हो
बिन तुम्हारे रह जाएगा
मेरा भाव सिंधु ही खारा.

यह सच है कि प्रेम में खोने का भाव पीड़ादायक होता है जैसा कि ऐतिहासिक इबारतों में दर्ज़ शीरी-फरहाद,लैला-मजनूं,हीर-रांझा के प्रेम और उसकी दुखद परिणति साबित करती है.पर दोस्तों मैं इस ऐतिहासिक प्रेम को अत्यंत संकुचित मानती हूँ.वह प्रेम ही क्या जो व्यापक होकर समाज को प्रेममय ना बनाये.उपरोक्त पंक्ति में ‘बिन तुम्हारे रह जाएगा…भाव सिंधु ही खरा’ क्या सिंधु का कोई महत्व नहीं होता .जो सुधा मयी है वह समाज हित में भी अमृत हो सकता है पर जब वह हासिल नहीं हो पाता तो उसे मिटा देना कहाँ का न्याय है और प्रेम का कैसा रूप है .आप सब ने गौर किया होगा या नहीं पर प्रेम और उसके समानार्थक सभी शब्द प्यार,इश्क़,मोहब्बत में एक वर्ण आधा है अर्थात इनमें से कोई भी शब्द सम्पूर्ण नहीं है .प्रेम में असफल होने वाले,प्रेम में जान दे देने वाले सभी लैला मजनूं,शीरी फरहाद ,हीर-रांझा ने बस इस अधूरे वर्ण के महत्व को नहीं समझा .दरअसल दो वर्णों की सम्पूर्णता के बीच सभी शब्द(प्यार,इश्क़,मोहब्बत) का आधा वर्ण दो प्रेमियों के संकीर्ण दायरों के बीच अन्य रिश्तों और समाज की व्यापकता से जुड़ा है प्रेम तो दो के बीच ही होता है पर आधा का वह अल्पांश उस प्रेम से लाभान्वित होना चाहिए इसके लिए प्रेम में मर कर नहीं बल्कि प्रेम में जीकर उसके प्रवाह से पूरी मानवता को प्रेममय बनाना है.प्यार की सम्पूर्णता तभी है जब उस आधे वर्ण को भी समझा जाए वह संतान,माता-पिता,भाई-बहन या कोई भी प्रियजन हो सकता है.यह आधा भाग ही प्यार शब्द में सेतु का काम कर प्यार को चिरंजीव बना देता है.जिसने इस आधे वर्ण की पहेली को गहनता से समझ लिया उसके लिए प्रेम इबादत है बोझ या पलायन नहीं.हमारे प्रेम से कुछ अन्य लोग भी जुड़े हैं …हमारा प्रतिबिम्ब औरों के वज़ूद में भी है…अपनत्व से भरा यह एहसास प्रेम को व्यापक अर्थ देकर ह्रदय को बेहद नम बना देता है.इस आधे का भाव बहुत प्रीतिकर बहुत मोहक है प्रेम में अगर मिलन ना हो तो भी उसे अलग-अलग होकर भी जिया जाए और दूसरे की खुशी में उस प्रेम को रूपांतरित कर दिया जाए .प्रेम में पड़कर..जान दे देना या जान ले लेना बहुत ही अव्यवहारिक तथा पलायनवादी धारणा है.प्रेम का भाव तो वह मज़बूत पकड़ है जो पतंग को डोर से और डोर को पतंग से जोड़कर..रवि का रश्मि से ..रश्मि का रवि से…सुमन का सुगंध से ..सुगंध का सुमन से …जोड़ कर एक दूजे का अस्तित्व बनाये रखती है पर यह जुड़ाव प्रकृति के हित में है विरोध में नहीं ..पतंग को आकाश में पूर्णता से उड़ने की छूट होते हुए भी वह अपनी आजादी को नहीं स्वीकार करता …सुमन और सुगंध औरों की खुशी के लिए भी जीते हैं…सूर्य की रश्मियाँ जन-जन को प्रकाशित करती हैं.सूर्य के अस्त हो जाने पर भी वे रश्मियाँ ऊर्जा बन कर जन -जन को संचालित करती हैं…सुगंध सुमन से पृथक हो कर भी इत्र बन औरों के काम आ जाता है.अपने प्रिय से अलग होकर भी किसी भी रूप में अपना अस्तित्व बचाये रखता है ताकि कुदरत उससे लाभान्वित हो सके .ऐसे प्रेम में होना व्यक्ति को आतंरिक और बाह्य सुंदरता से भर देता है और नेत्र इस प्रेम की चमक का दर्पण बन जाते हैं.

इंसान के अकेले आने और अकेले जाने का जीवन दर्शन चाहे प्रत्येक संस्कृति ,सभ्यता , देश काल का अभिन्न अंग रहा हो पर हकीकत तो यह है कि जन्म के बीज रूप में ही उसका अस्तित्व प्रेम में पड़ जाता है क्योंकि उसकी उत्पति ही प्रेम की परिणति के रूप में होती है.स्त्री-पुरुष के हाड मांस ,रक्त मज्जा से बना बीज जन्म के साथ माँ के प्रेम में होता है .जन्म के बाद पूरी जीवन यात्रा में अपनी रिक्तता को सिर्फ प्रेम से भरता है.और जब मृत्यु होती है तो अपने पीछे प्रेम ही छोड़ कर चला जाता है.

अगर प्रकृति में प्रेम ना होता तो कला के समस्त आयाम लेखन,शिल्प,नाट्य,चित्र,गीत-संगीत,कितने संकुचित और अधूरे-अधूरे से होते.प्रेम ही तो वह भाव है जो अपने संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष में प्रकृति की धूप-छाँव की प्रमाणिकता को मूक और मुखर दोनों रूपों में व्यक्त करने की क्षमता रखता है.संयोग की धौकनी से धड़कता है तो वियोग के अंसुअन से भीगता है.कला क्या विज्ञान के नियम भी प्रेम से इंकार नहीं कर सकते .ब्रह्माण्ड का कण-कण गुरुत्वाकर्षण शक्ति से गतिमान है प्रेम के अस्तित्व की इससे बड़ी प्रमाणिकता और क्या होगी . एक नन्हे से बच्चे को भी मैंने प्यार से हाथ पकड़ कर मुस्कराते देखा है .एक प्रेम से भरा ह्रदय अपने आस-पास की फ़िज़ा को भी प्रेममय बना देता है.हाँ भौतिक शास्त्र का नियम ‘समान समान को विकर्षित करते हैं’ ..प्रेम शास्त्र में नहीं लागू हो पाता यहाँ तो मीलों दूर बैठा प्रेमपूर्ण ह्रदय अपने जैसे कई प्रेम भरे ह्रदय को आकर्षित कर प्रेम का संवाहक बन जाता है.

प्रेम के सभी रूपों में वैवाहिक प्रेम तो स्वयं में एक तपस्या है जो कभी एकांत में बजती वेणु की ध्वनि है तो कभी पारिवारिक नीड़ में पंछी का कलरव.एक के चेहरे की प्रेममयी छवि मानो वह पारस कि जिसे छू दे वही सोना हो जाए उस प्रेम की आभा से दीप्त हो जाए.आँखों से ढलके स्वाति की बूँद किसी और की आँखों की सीप में कुछ यूँ बंद हो जाएं कि मोती का जन्म हो जाए.यही प्रेम मयी खुशी समाज की खुशी का आधार है युग बदल जाए..प्रेम का माध्यम बदल जाए पर प्रेम का भाव अपरिवर्तनीय है वह हमेशा निश्छल है पवित्र है.नित्य नूतनता का एहसास वैवाहिक प्रेम का तकाज़ा है.बहती धारा सा निरंतर प्रवाह..प्राणदायिनी वायु सा अदृश्य झोंका जो जीवन के प्रत्येक पहलू,प्रत्येक रिश्ते को छूकर अपने होने का एहसास कराये .पति-पत्नी का प्रेम पूरे परिवार को प्रेम सिक्त कर सके…बस यही है दो वर्णों की सम्पूर्णता के बीच उस आधे वर्ण की अपूर्णता की पहेली….प्रेम मूक हो या मुखर इसकी भाषा अत्यंत बोधगम्य है,बशर्ते इस शब्द के वर्ण में निहित रहस्य (दो वर्णों की अपूर्णता नहीं ;ढाई वर्णों की सम्पूर्णता)को समझा जा सके.जो प्रेम,प्यार,इश्क़,मोहब्बत में असफल होने की बात करते हैं उनसे बस यही गलती हो जाती है कि वे अपने अस्तित्व के सम्पूर्ण वर्णों पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने साथ अटूट सम्बन्ध के रूप में समाज परिवार के आधे वर्ण को पूर्णतः उपेक्षित कर देते हैं और उनका प्रेम डबरा बन जाता है जिसका जल अपनी ही संकीर्ण दीवारों में टकरा-टकरा कर वापस लौट जाता है और एक दिन बिना समाज का हित किये मृतप्राय हो जाता है.
प्रेम तो ऐसा है कि ना मिल कर भी गीत बन जाए……..ओशो की दो पंक्ति उद्धरित कर रही हूँ ….

जब रिसता है प्यार तुम्हारा

बह उठती है गीतों की धारा .

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