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वह एक शख्श ….
जिससे कभी थी ना मैं मिली
मेरे तसव्वुर में …
हक़ीक़त बन उभर आता था
उभरती थी उसमें
पिता सी ही रोबीली छवि
वही घनी मूंछें कर्नल सी
और मूंछों से छुपती मुस्कान
कोमलता कठोरता का
था वह कितना अद्भुत भान
वही गहरी आँखें पिता सी
सब कुछ देख पाने की क्षमता
सारी पीड़ाएं..सारी खुशियां
वही सागर सा ह्रदय विशाल
समझती जो हर विवशता
पिता के नज़्म गीतों को सुनते
अकसर उभर आता था वो चेहरा
फिर वह ख्वाब होने लगा अज़ीज़
पिता की हकीकत से भी ज्यादा
और फिर एक दिन….
जिम्मेदारी की बेबस आवाज़ ने
मानो फेंका कंकड़ तालाब में
पूछा पिता ने……….
“कोई पसंद हो तो देना बता”
जाने कहाँ से आया साहस
जाने कैसे हिले अधर
“जो भी हो बस हो आप सा”
गए एक साथ सुर बिखर
पिता के लिए था अप्रत्याशित
ऐसा मुझे लगा नहीं
हाँ एक गौरव था रहा झलक
एक संतुष्टि की थी चमक…..
‘हर रूप में देखा इस छवि को
ओह!है कितनी भोली नादाँ
या फिर ये है मेरे
असीम प्यार का प्रतिदान ??’
मैं नादाँ थी…
वैवाहिक सम्बन्ध के
एक पहलू से सर्वथा अनभिज्ञ
भीगे पलक से देखा था
थे भीगे पिता के भी दृग
और फिर वह दिन भी आया
जब था पिता संग वो खड़ा
ख्वाब अब हकीकत बना
पिता की हर खूबी हर बात थी मौज़ूद
कहाँ से ढूंढा पिता ने अपना ही वज़ूद
होगा कितना पिता ने परखा
होगा कितनों की भीड़ में देखा
सच है ….मैंने जी भर सोचा
यह पिता ही कर सकते थे
मेरी पसंद उनकी पसंद बनी
अपनी पसंद में भी तो वे ही थे
पिता छोड़ बहुत दूर गए हैं
अपनी ही छवि छोड़ गए हैं
जीवन के चिर परिचित सी ही
जानी पहचानी राहों में
सागर से जन्मीं दरिया
है सागर की ही बाहों में
वही संरक्षण;वही दुलार
वही विश्वास;वही प्यार
इस शाख में भी है वही
मज़बूत दरख़्त सी छाया घनेरी
क्या खोजती ऐसा ही बिटिया मेरी
क्या उसके लिए भी वही
प्यारी सी है दिखती छवि
कुदरत में है एक बात सही
अपने हमसफ़र में हैं खोजती
बेटियां पिता सी ही छवि.
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