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ईश्वरीय अनुकम्पा से ‘प्रेम’ मेरे लिए कभी संघर्ष का विषय नहीं रहा.किशोरावस्था से प्रेम की जिस परिभाषा को मन ने गढ़ना शुरू किया व्यस्क होने पर वही दामन में उपहार बन समा गया.स्त्री पुरुष के बीच प्रेम की इस विषय-वस्तु को मैंने कांच और पत्थर के रिश्ते सा नहीं बल्कि नीर-क्षीर मिश्रण सा महसूस किया है जहां दो पृथक वज़ूद मिलकर एकसार हो जाते हैं.मैंने स्त्री को अगर पुरुष की बराबरी की चाहत में छटपटाते देखा तो पुरुषों में भी स्त्रियों के मानक महानताओं की ऊंचाई पाने की चाहत देखी.इसलिए मेरे लिए प्रेम ज़िंदगी के गणित के योगात्मक पहलू (१+१=२) की बजाय गुणात्मक (१*१=१ ) पहलू है जहां एक एक मिलकर दो नहीं बल्कि एक और एक गुणात्मक रूप से एक हो जाते हैं ..एक शरीर..एक धड़कन…सुख-दुःख सब साझा होकर एक ….बस यही प्रेम की स्पष्ट…साफ़ और सरल परिभाषा है.क्योंकि……..
ज़िंदगी…..सिर्फ…
एक ही छत के नीचे रहने का नाम नहीं
बात-बात पर एहसान जताने का काम नहीं
हल्की दरारों को खाई बनाने का पथ नहीं
सांसें गिन-गिन कर बढता खींचता रथ नहीं
शाम होते ही लौट आते हैं पंछी भी नीड़ को
रहने खाने का इंतज़ाम करना आता कीट को
पर…….
मनुष्य ज़िंदगी रहने-खाने के अतिरिक्त भी कुछ है
एक छत के नीचे रहते हुए
करने होते हैं साझा ….
कुछ मूक संवाद….कुछ अनदिखे कष्ट
समझनी होती है….
हंसते होठों की पीड़ा…रोती आँखों की क्रीड़ा
थामने होते हैं हाथ….
जो घंटों बेलती हैं रोटियां….वर्षों कमाती हैं रोटियां
मिलाने होते हैं कदम…..
भूत,वर्त्तमान,भविष्य के….चलती-थमती रहस्य के
देने होते हैं हक़…..
बात अपनी समझाने के…मान -इज्जत पाने के
सुनने होते हैं पल….जो निकले ….
विकलते मन के आर-पार….पोरों से बहते सस्त्र धार
क्या कभी साझा किया विश्रांत क्षणों को ??????
कभी साहस कर तोड़ा एक-दूजे के मौन को ????
स्त्री ने पुरुष से…पुरुष ने स्त्री से ….पूछा कब ????
बिन बात के भी क्यों….होठं फड़कते हैं तेरे
बिन मेघ के ही क्यों….नयन बरसते हैं तेरे
मार हर मौसम की कैसे….शरीर सहते हैं तेरे
बिन हथेली स्पर्श से क्यों …दृग बर्फ पिघलते हैं तेरे
जज़बात किस भय से यों …मूक रहते हैं तेरे
क्या कभी झाँक कोशिश की देखने की ?????
अंतस का वह गहन कूप…परिणति थे जो अंसुअन के
समस्त छुपी वेदनाओं के…पिघलते लावा दहक तपन के
ये कैसी पहचान कि….
पंख टूट जाएं तो …उड़ान का एहसास हो
पर्ण बिखर जाएं तो…दरख्त का आभास हो
नींद आँखों को छोड़े.. तो स्वप्न का वास हो
संयोग में ही मानो..पतझड़ का मधुमास हो
सर्द कब्रों को बस गर्म अश्कों ही का आस हो
एक छत के नीचे रहने वाले…..
दो विपरीत ध्रुव नहीं…..दो विपरीत कूल नहीं
पूरक होते एक-दूजे के
ख़ास होता अर्थ नन्हे वज़ूद का
सच है कि स्त्री…………
कृतज्ञ समर्पित हो जाती है
वात्सल्य प्यार स्नेह लुटाती है
कोख,तन मन मस्तिष्क के….समस्त बोझ उठाती है
त्याग स्वहिस्से का अधिकार…महानता का तमगा पाती है
रीति रस्म रिवाज़ों के …भावना सूत्र से बंध जाती है
आँचल के अमृत घट से…राखी के रेशम सूत्र से
चुटकी भर रक्तिम सिन्दूर से..मान की स्नेह जंजीर से
पर सदियों से बराबरी की आकांक्षा में ….स्त्री…
अक्सर यह समझ नहीं पाती कि….
पुरुषों को भी होती है चाहत
स्त्री सी ऊंचाइयां छूने की.
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