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यह कैसी रूखसत है….(कांटेस्ट)

V2...Value and Vision
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१)
वक्त की कब्र में दफ़न वे अफ़साने भी कितने करीब थे दिलों के

आज तो हकीकत भी उस शिद्दत से पैबस्त होते नहीं दिलों में
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२)
हर शख्श ही यहाँ खोखला और अधूरा-अधूरा सा है

शक्ल आधी घर पर छोड़ लिए आधी बाज़ार घूमता है
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३)
मुसन्निफ़ के इज़तिराब को भी दरकार कुछ बेकल तनहा पलों की

ज़जबात को अलफ़ाज़ बन बहने के लिए कुछ सुराखें तो चाहिए.

मुसन्निफ़(लेखक) , इज़तिराब(बेचैनी)
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४)
हसीं खुशनुमा दिखती ज़िंदगी के कई राज़ ओढ़ जाती है

यह कैसी रूखसत है जो अनगिनत सवाल छोड़ जाती है.

(सुनंदा पुष्कर की मृत्यु पर)
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५)
किस मुसव्वर से मैंने राब्ता रखा कि किया सरेआम उसने मुझे तेज़ाब से बेरंग

कल तक अलफ़ाज़ थे जिसके ‘तू मुमताज़ है मेरे ख्वाबों की मैं तेरा शाहजहां’

मुसव्वर(चित्रकार) राब्ता(सम्बन्ध)
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६)
मोहब्बत के लिए कुछ भी नहीं होता अनदेखा

मोम क्या पत्थर को पिघलते तो मैंने भी देखा
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७)
किसने कहा अम्नो-सुकून के लिए ऐशो-शोहरत जैसी कोई शर्त है

यह वह कोहिनूर है जिसकी शुआओं से गरीब के भी घर मुनव्वर है.

शुआओं(किरणों) मुनव्वर(रोशन)
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८)
एक बांह झरोखेनुमा छोटे बड़े सुराख वाली पोशाक और इन्तिशार अदा

इत्र से महकते बदन की फैशनपरस्ती तो गर्द भरे शरीर की मज़बूरी है.

इन्तिशार(अस्त-व्यस्त)
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९)
आफताब हर दिन का शाम होते ही डूब जाता है
यह देख कर भी हुस्न ज़ेबाईश से ना घबराता है

ज़ेबाईश(सजावट)
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१०)
अपाहिज़ माँ के मुदावे की रकम की खातिर बेज़ुबान ने जब तन बेचा

वहशी अपाहिज़ समाज के हालात पर दिल उसका ज़ार-ज़ार रोया

मुदावे(इलाज)
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११)
बेज़ुबान पुतलों को महफूज़ करता आवाज़ लगाता था वह नन्हा सौदागर

एक ही झटके में  हुआ खामोश रईसज़ादे की बल खाती बेकाबू कार से
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१२)
हर तस्वीर जिसमें मुस्कराते हों लब गर एहसास करना हो दर्द उनका

तो आँखों के डोरे देखो जिनकी बेकली लबों को तर और सुर्ख बना देती है.
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१३)
ज़िंदगी सिर्फ एक ही छत के नीचे रहने का नाम नहीं
बात-बात पर एहसान जताने सा कोई इंतकाम नहीं

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१४)
बराबरी की तिश्नगी में औरत इस हक़ीक़त से कभी आशना होती ही नहीं

साहब-ए-किरदार अपने हुदूद से बेज़ार उस सा सबात औ बुलंदियां चाहता है.

तिश्नगी(चाहत,प्यास )   आशना (परिचित)    साहब-ए-किरदार(man of character)       हुदूद(सीमा ,limits)       बेज़ार(ऊब ,bored ) सबात(strength )

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१५)


जिन नूरजहां आँखों ने नींद से महरूम हो शब गुज़ार दी .

१६)
हम कलम की जुबां कहते हैं,तुम बस बंदूकों की ही भाषा समझाते हो

काम चल सकता है एक लब्ज़ से जहां वहाँ तुम समंदर लहू का बहाते हो .

१७)

रंगों का यह कैसा भुलावा है कि अब इंद्रधनुष सिर्फ लाल ही दिखता है

जुबां,ज़मीन,ज़र जाति मज़हब की ज़ंग में लहूलुहान इंसान चीखता है
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