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मैं आज भी उतना ही मासूम हूँ!

V2...Value and Vision
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बच्चे वक्त से पूर्व बड़े हो रहे हैं…उनकी मासूमियत कहीं खो रही है…वे बड़ों की बात नहीं सुनते….पीढ़ियों का अंतराल बढ़ रहा है….ऐसी कई शिकायतें लगभग हर समारोह,आयोजन ,पब्लिक फोरम में लोगों के बीच विचार विमर्श का मुद्दा बन रही हैं.अगर ये शिकायतें अल्पांश में भी सही हैं तो इसके लिए दोषी कौन है ?????????
शिक्षाविद श्रीमान नारायण जी ने यही प्रश्न उठाया था.

“After all who are these students/children  ?Are they not our brothers & sisters or sons & daughters ?? If there is something wrong with them,surely there is very wrong with us also.In other words condemnation of the student/children is in a sense condemnation of ourselves.We cannot shirk our responsibility in this regard.The fault lies partly with the system of education,partly with the teachers of educational institutions,partly with the existing social conditions & partly also with the conditions obtaining in our homes.  ”

संस्कार और मूल्यों के कोई ‘crash course  ‘ नहीं होते;ये परिवार,समाज और देश की आबो-हवा में घुले होते हैं जिन्हे बच्चे ऑक्सीजन की तरह हर पल ग्रहण करते रहते हैं.हवा जितनी शुद्ध होगी …उतनी ही सशक्त नई पीढ़ी का जन्म होगा…बुजुर्ग  पीढ़ी के जिम्मेदार लोग तो सदियों से मूल्यों के संवाहक बने हैं .गलती दूसरी पीढ़ी या व्यस्कों से हो रही है जो कभी नौकरी का दबाव ,कभी समयाभाव कभी गृहस्थ जीवन की आपाधापी का हवाला देकर सबसे पहले जिस जिम्मेदारी की उपेक्षा कर रहे हैं -वह है पारिवारिक मूल्य और उससे जुड़ा बचपन.

दो महीने पूर्व अपनी बिटिया को हॉस्टल छोड़ कर लौट रही थी.सामने की बर्थ पर एक युवा दंपत्ति और उनका आठ वर्ष का पुत्र बैठा था.मैं अपने पतिदेव के साथ बिटिया के बचपन ,उससे सम्बंधित कई यादों को बांटने में मशगूल हो गई जैसा कि मैं हमेशा करती थी.अचानक सामने ध्यान गया तो मायूस हो गई.युवा दंपत्ति में पति किसी कांफ्रेंस की चर्चा के लिए मोबाईल में व्यस्त थे ;पत्नी लैप टॉप पर किसी मूवी में और बीच में बैठा बच्चा कभी मोबाईल की तरफ तो कभी लैप टॉप की तरफ देखता ;;ज़रुरत और समझ के अनुसार ढिशुम-ढिशुम की आवाज़ निकालता…हेल्लो हेल्लो करता और फिर खिड़की के कांच से बाहर देखने की कोशिश करता .सफ़र में संवाद तो चल रहा था पर एकतरफा और पूर्णतः यांत्रिक.मैं सोच रही थी ये दंपत्ति अपने बचपन के दिनों की बातें,बच्चे के एहसासों की बातें कर सफ़र को कितना जीवंत और यादगार बना सकते हैं…मन नहीं माना और आज्ञा लेकर उनसे रूबरू हुई और आपस में संवाद और जुड़ने का महत्व समझाया .थोड़ी देर में ही वह छोटा सा परिवार बेहद जीवंत हो उठा ….ए.सी के उस बंद डब्बे में भी बचपन खुल कर सांसें लेने लगा…माता-पिता के बचपन के पंख उस बच्चे में गज़ब का उड़ान भरने लगे….मुझे तसल्ली हुई….अपनी बिटिया से दूर होने का कष्ट भूल गई.

आज बचपन समाज के हर क्षेत्र से गायब हो रहा है…विज्ञापन,सिनेमा,धारावाहिक गाने,नाटक,बचपन को समय पूर्व परिपक्व साबित करने की कवायद में जुट गए हैं.कुछ इस मशहूर शेर के अंदाज़ में…..

“जुगनुओं को  दिन के उजाले में परखने की जिद करें….

बच्चे इस दौर के किस कदर चालाक हो गए हैं”

अब गाने अगर ‘छोटा बच्चा जान कर हमको ना समझना रे’ होंगे ….विज्ञापन के पापा ईश्वर की प्रार्थना से मच्छर भगाने की बात करें और बच्चा कहे हाँ, ईश्वर ने प्रार्थना टेबल के नीचे से सुन ली’….बच्चों के लिए बने धारावाहिक शिन चान का किरदार बड़ी-बड़ी बात करे तो आप ही बताइये बचपन स्वयं को कैसे बचा पायेगा ?कहाँ गए वो ‘दादी माँ दादी माँ मान जाओ ‘सरीखे पारिवारिक मूल्यों पर आधारित गाने….अमूल की मासूम बच्ची जैसी छवि और विज्ञापनों में क्यों नहीं दीखती….मोगली जैसे किरदार क्यों गायब हो रहे हैं….गिल्ली डंडा,कबड्डी,पोशमपाई जैसे खेलों ने क्यों दम तोड़ दिया ..और बंद कमरों के बंद बक्से में बेहद हिंसक रूप में पुनर्जन्म कैसे ले लिया है..….इनमें से प्रत्येक प्रश्न का ज़वाब सिर्फ और सिर्फ दूसरी पीढ़ी के पास है.
ईश्वर ने बच्चों को सिर्फ वंश वृद्धि या मानव जाति की शाश्वता बरकरार रखने के लिए धरती पर नहीं भेजा है …बच्चे ही हैं जो हमें दबाव और तनाव के क्षण में भी निश्चलता,निष्कपटता,के साथ बेशर्त प्यार और सत्यता का पाठ पढ़ाते हैं.जो व्यक्ति बचपन के जितना करीब रहता है ‘वह उतना ही सहज,संतुलित,मासूम और बेफिक्र होता है.

एक मशहूर शायर का शेर याद आता है

मालूम ना था इतने फूल होंगे ऐ ज़िंदगी तेरी बाहों में

हमने तो अपना बचपन गुज़ारा था काँटों भरी राहों में ”

पर इस फूल और काँटों की भी समझ बड़े होने पर आती है… हम तुलनात्मक,समीक्षात्मक होने लगते हैं ..बचपन की उन यादों को मौजूदा समय से तुलना कर बैठते हैं और तब एहसास होता है कि बचपन में कितने फूल और कितने कांटे थे …निश्छल,निर्भय ,निश्चिन्त बचपन को तो इनका एहसास भी नहीं होता.

जैसा कि सुभद्रा जी की पंक्तियाँ कहती हैं …..

“ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी

बनी हुई थी आह, झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी

चिंता रहित खेलना खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद

कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद ”

kahlil gibran ने भी कहा है……

“You may give them your love but not your thought;for they have their own thoughts.

you may house their bodies but not their souls;for their souls dwell in the house of tomorrow,

which you cannot visit ,not even in your dreams “

पर मेरा मानना है कि बच्चों से पूरी संज़ीदगी से संवाद कायम रखने ,उन्हें वक्त देने से ,वे अपने स्वप्न की दुनिया में बड़ों को सहर्ष ले जाते हैं.

इस दीपावली मेरी बिटिया घर नहीं आ पाई,उसने मुझे कुछ मोमबत्तियां पार्सल किये जो mentally challenged  बच्चों ने बनाये थे साथ में एक चिट्ठी जिसमें लिखा,”माँ,मैं इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहती हूँ.”मुझे दो बातों से तसल्ली हुई…प्रथम ,समाज के प्रति उपजी उसकी संवेदनशीलता और दूसरा, अपने एकाकीपन को अवसाद ना बनाकर प्रेरणा बनाने की उसकी कुशलता .
सच है पीढ़ियों का अंतराल,मासूमियत को असमय परिपक्वता की दहलीज़ पार कराने की कवायद हम जैसे दूसरी पीढ़ी की भयंकर भूल है …तीसरी पीढ़ी को कभी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि प्रथम और तीसरी पीढ़ी को जोड़ने वाली सेतु दूसरी पीढ़ी है एक घर में एक कुत्ता पाला गया,घर पर १० वर्षीया बच्ची ने उसका नाम नेट पर खोज कर रखा ‘aron ‘बच्ची की दादी ने उस पालतू कुत्ते को अपनी समझ से पुकारना शुरू किया ‘अहिरावण’ (पौराणिक नाम) दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे अब ज़रुरत थी दोनों कड़ियों को जोड़ने की अतः बच्ची के पिता ने सेतु का काम किया बच्ची और दादी दोनों ही उस पालतू को दोनों नाम से बुला लेती हैं.अगर दूसरी पीढ़ी सजग और संवेदनशील है तो फिर पीढ़ी अंतराल की बात ही कहाँ रह जाती है ?उद्योग जगत में भी y-gen x-gen,baby boomers के बीच पीढ़ी अंतराल की बात होती है पर एक दूसरे को समझना आज आधुनिक तकनीक के माध्यम से कितना आसान हो गया है …face book,ब्लॉग साइट्स ,सोशल नेट वर्किंग साइट्स जैसे साधनों से ५०-५५ वर्ष का व्यक्ति 20-25 के युवा से जुड़ रहा है बच्चों से जुड़ रहा है मूल्यों के संवाह के लिए इससे सशक्त माध्यम कहाँ मिल पायेगा .बस इन सभी साधनों की सही इस्तेमाल की ज़रुरत है.

ज़रुरत है अपने अनुशाषण ,अपने मूल्यों की तरफ बच्चों को जबरजस्ती खींचने की कोशिश के बजाय स्वयं ही मूल्य बन जाने की ताकि इन मूल्यों , संस्कारों तहज़ीब को बच्चे आबो-हवा और फ़िज़ाओं से प्राकृतिक रूप में ग्रहण कर लें …..बच्चों से जुड़ने,उनकी दुनिया में विचरण करने के लिए सर्वप्रथम उन्हें समझना ज़रूरी है.बच्चे आज भी उतने ही मासूम हैं जितने हम जैसी दूसरी और दादा जी नाना जी जैसी तीसरी पीढ़ी के ज़माने में हुआ करते थे….गलती बड़ों से हो रही है ….उन्होंने अपनी आँखों के चश्में से बच्चों को देखना और परखना शुरू कर दिया है ….हर बच्चा कहता है…..

कैसे पहचाना मैंने बोलो अपने पराये की सीमा
किससे सीखा मैंने इस झूठ फरेब का करिश्मा
जब-जब चाहा मैंने तुमको पाया सिर्फ खिलौना
तुम्हारे शानो शौकत ने किया इस कदर मुझे बौना
मैं आज भी उतना ही मासूम हूँ ,उतना ही निश्छल
छीनता जा रहा क्यों मेरा बचपन हर क्षण पल-पल ??

“God sends children for another purpose than merely to keep up the race …it is to enlarge our hearts and to make us unselfish and full of kindly sympathies and affections to give our soul higher aims…..my soul is grateful to the lord as He has gladdened the earth with little children.”(J.L.Nehru)

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