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हिन्दी बाज़ार की भाषा है गर्व की नहीं….हिन्दी गरीबों अनपढ़ों की भाषा बन कर रह गई है….ऐसी सोच के दौर में अब वह समय आ गया है मैं हिन्दी भाषा – स्वयं ही मुखर हो जाऊं.
मैं हिन्दी भाषा हूँ….भाषा;गर्व की…गरिमा की…भारतीय संस्कृति की संवाहिका..प्रवाहमयी भाषा..पतितपावनी गंगा की मानिंद.सदियों से ज्ञान की धरती को सींचती..साहित्य ,लोक भाषा के रूप में समाज को उर्वर करती सतत प्रवाहमान भाषा हूँ मैं…बेशक मैं गरीबों,अनपढ़ों की सादगी और सत्यता में पनाह लेती हूँ,उनके द्वारा संजोई जाती हूँ पर साथ में यह भी हकीकत है कि मैं अमीरों,प्रबुद्धजनों की जुबान में भी निर्बाध,निर्विघ्न प्रवाहित होने की अनिवार्यता और स्वाभाविकता रखती हूँ.मानती हूँ,संपूर्ण विश्व के कुछ भाग और भारत देश के कुछ भौगोलिक क्षेत्र को प्रत्यक्षतः मैं सिंचित नहीं कर पाती..परन्तु अप्रत्यक्षतः मैं स्थानीय से वैश्विक जनमानस के दिलोदिमाग पर अपने अद्भुत अस्तित्व का आभास कराने में पूर्णतः सक्षम हूँ.धर्मं,जाति,भूगोल की संकीर्ण सरहदों को पार कर ग्रन्थ,पुस्तक,पत्रिका के रूप में, विचार-विमर्श ,वक्तव्य की संवाहिका के रूप में, मैं अपनी शाश्वता बनाए हुए हूँ…मैं हिन्दुस्तान की पहचान हूँ..विश्व मुझे इस वतन की माटी के शबाबे-हुश्न के रूप में नवाजता है…क्योंकि मैं इस मुल्क की जुबान हूँ.
हिन्दी भाषा के उपरोक्त मानवीकरण के प्रेरक के रूप में एक छोटी सी घटना का ज़िक्र मुनासिब समझती हूँ.१५ दिन पूर्व दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में बीमार, बड़े भाई को देखने गई थी.बगल के बिस्तर पर उज्बेकिस्तान से आई एक युवती थी जो हिन्दी ,अंग्रेज़ी कोई भाषा नहीं समझ पा रही थी,अतः इशारों में बात कर रही थी.अगले दिन उसने हॉस्पिटल द्वारा दी गई भोजन की थाली लाकर मुझे देते हुए बताया कि वह पिज्जा बर्गेर खायेगी और मैं वह भोजन ग्रहण कर लूँ.चूँकि दिन सोमवार था ,मुझे उसे समझाना था कि मैं व्रत में हूँ.इशारों के साथ स्वाभाविकता वश मेरे मुंह से निकला,”पूजा के बाद.” उसने कहा ,”ओह!रोजा.”मेरी बात वह समझ कर थाली ले वापस चली गई.हिन्दी भाषा के एक शब्द ‘पूजा’ ने उसे समझाना कितना आसान कर दिया था.उसने हिन्दी भाषा के शब्द ‘पूजा’के साथ ‘रोजा’ शब्द का मिलान कर लिया था .उस दिन मुझे उसकी बोधगम्यता से ज्यादा हिन्दी भाषा की स्वीकार्यता और सहजता पर संतुष्टि हुई.
अपने देश में स्थानान्तरण के दौरान मुझे हिन्दी और तथाकथित अहिन्दी राज्यों में रहने का अवसर मिला.नासिक(महाराष्ट्र),आसनसोल(पश्चिम बंगाल),संबलपुर(ओडिशा),केरल ..जैसे कई स्थान जहां अमूमन हिन्दी को अधिक प्रचलित नहीं समझा जाता ,वहां भी मैंने यही पाया कि हिन्दी पूरे जन मानस की भाषा है.वहां के स्थानीय माटी की सोंधी महक हिन्दी की प्रथम फुहार से ही उपज कर हमारी भावाभिव्यक्ति को उनकी समझ के तल तक ले जाकर महका देती है.वे अपनी स्थानीय भाषा के अतिरिक्त अगर कोई और भाषा से जुड़ पाते हैं तो वह हिन्दी है अंग्रेज़ी या कोई दूसरी विदेशी भाषा नहीं.
एक बार मेरी एक बँगला भाषी मित्र को स्वागत भाषण बोलना था.उसने कहा,”आज श्रीमती अमुक हमारे अन्दर(बीच) आई हैं हम उनका स्वागत करते हैं.”जब उन्हें भाषा में एक शब्द के गलत प्रयोग का बोध हुआ वे बहुत दुखी हुईं और पूरे प्रयास से हिन्दी भाषा सीखने लगीं.आज वे बहुत ही सरलता और शुद्धता से हिन्दी बोलती हैं.
संसद से सड़क तक….बाज़ार से बस्ती तक…निरक्षर से साक्षर तक…शिक्षित से अशिक्षित तक….कैटल क्लास से कॉर्पोरेट क्लास तक ..चूल्हे-चौके से चौक तक ..मिल से मॉल तक अपना वर्चस्व कायम रखती,अपना परचम फहराती हिन्दी भाषा ना किसी परिचय और प्रचार की मोहताज़ कल थी..ना आज और ना आने वाले कल में रहेगी .उसका अपना प्रवाह ,अपना समृद्ध शब्दकोष ,अपना व्याकरण है ..साथ ही इस भाषा ने पूरी उदारता से अन्य भाषा की शब्दावलियों को भी अपने विशाल ह्रदय में समाया है ..यही विशेष बात है ,जो उसे सहज और सर्वस्वीकार्य बनाता है.
हिन्दी की लोकप्रियता और सर्व पहुँच इसी बात से साबित हो जाती है कि टी.वी धारावाहिक ,समाचार चैनल,सिनेमा पत्र-पत्रिका में जहां तेजी से इस भाषा का प्रयोग बढ़ रहा है वहीं बड़े-बड़े मैनेजमेंट गुरु,कॉर्पोरेट जगत के मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष,बड़े-बड़े कलाकार भी भाषण या बातचीत की शुरुआत भले ही अंग्रेज़ी से करें पर उनके वक्तव्य का प्रवाह समतल पर आते ही बेहद सहजता से हिन्दी भाषा में सर्पिलाकार रूप को अंगीकार करते हुए अपने मुहाने पर आकर विराम देने लगता है उन्हें एहसास ही नहीं हो पाता.ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दी ही हमारी पहचान है;स्वाभाविकता है चाहे वह अनपढ़ हो या प्रबुद्ध, बाज़ार में हो या कार्य स्थल पर.उसकी सहजता जितनी हिन्दी भाषा में है उतनी किसी विदेशी भाषा में कभी नहीं.
वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में यह कहना कि हिन्दी गरीबों तथा अनपढ़ों की भाषा बन कर रह गई है और यह बाज़ार की भाषा है यह बिलकुल असंगत है.हमारी सम्प्रेसनता और भावाभिव्यक्ति को मज़बूत आवाज़ देने में जितनी सक्षम हिन्दी भाषा है उतनी और कोई स्थानीय या विदेशी भाषा नहीं है.ये हमारी सोच समझ और व्यक्तिगत प्रयास पर निर्भर करता है कि हमने हिन्दी भाषा को लेखनी,वाचन,रोज़मर्रा के काम काज ,अपनी संस्कृति और परिवेश में क्या स्थान दिया है.ज़रुरत है कि अपनी राष्ट्र भाषा को हम अपनी कथनी,करनी,लेखनी में इतना शामिल करें कि वह हमारी संस्कृति की रुधिर वाहिनी में शुद्धता और स्वाभाविकता से प्रवाहित हो और तब हमें भी किसी और भाषा के रक्त की ज़रुरत नहीं पड़ेगी जैसा कि अधिकाँश देश अंग्रेज़ी भाषा नहीं बल्कि निज भाषा को अपनी आन बान शान समझते हुए अपनाते हैं.
प्रत्येक भारतीय को यह बखूबी समझना होगा कि मैं हिन्दी भाषा गंगा की तरह प्रवाहमयी और शाश्वत हूँ ,जिसे चाहे संजो कर रखो या सतत प्रवाहमयी ;मेरा महत्व सदा बना रहेगा. क्योंकि
मानो तो मैं गंगा माँ हूँ
ना मानो तो बहता पानी.
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