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‘अंदाजा’-उसके कद का

V2...Value and Vision
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“सिंह अंकल नहीं रहे” फोन पर मिले इस सन्देश पर मुझे क्या किसी को भी आश्चर्य नहीं होता .85  वर्ष की उम्र और मृत्यु का शाश्वत सत्य दोनों ही बातें सहजता से स्वीकार्य थीं .फिर भी ऐसा क्या था जिसने मन को व्यथित और उद्वेलित अवश्य किया था .कुछ दिनों पूर्व ही जब मैं कई वर्षों के उपरान्त अपने गृह नगर गई तो अपने बचपन के मित्र से जो कि वहां के एक प्रतिष्ठित संस्था में अच्छे पद पर कार्यरत हैं ,मिलने का लोभ संवरण ना कर सकी.जब मैं उनके घर गई …मेरे हाथ उनके दरवाजे पर दस्तक देने को उठे ही थे कि अन्दर से आवेश भरी इस आवाज़ ने मुझे क्षण भर के लिए रोक दिया था,“देखो,तुलसी का पौधा फिर सूख गया.”मैंने साहस कर हौले से घंटी बजाई.दरवाजा मित्र ने ही खोला मुझे देख आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता व्यक्त की और अन्दर बिठाया.घर के वातावरण की बोझिलता मुझसे छुपी ना रह सकी.मैंने सिंह अंकल आंटी (उनके अभिभावक)के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की तो उन्होंने रुखा सा ज़वाब दिया,”रिटायरमेंट के बाद माता-पिता गाँव चले गए थे तीन-चार मास के समयांतराल में मेरे पास आते रहते थे .दो वर्ष पूर्व माता जी के निधन के बाद पिता वर्ष के अधिकाँश दिनों में मेरे साथ ही रहते हैं.वे अन्दर के कमरे में हैं,आप उनसे मिल सकती हैं.”ऐसा कहकर वे अपने इकलौते पुत्र को लेकर उसे बाहर घूमाने चले गए और उनकी धर्मपत्नी चाय नाश्ते के इंतज़ाम के लिए रसोई घर का रूख कर गईं.मेरे कदम भी मित्र के इंगित किये कमरे की ओर बढ़ गए.
मैंने अंकल के कमरे का पर्दा धीमे से हटाया,30-35  वर्ष पूर्व के ऊंची कद-काठी के सुदर्शन व्यक्तित्व के स्थान पर एक कृशकाय काया सर झुकाए बैठी थी.बरबस ही मशहूर शेर याद आया…..

ना था
वह आसमां था पर सर झुकाए बैठा था”


निश्चय ही यह सिर्फ उम्र की तपिश का असर ना था….इस तपिश की वज़ह में छुपी चिंगारी को आसानी से महसूस किया जा सकता था जिसमें जीवन की वृद्धावस्था की सांध्य बेला में प्रत्येक पांचवा बुजुर्ग रोज़ तिल-तिल कर जलता है .मुझ पर नज़र पड़ते ही मानो किसी अज़नबी की आहट ने उन्हें इतना चौकन्ना कर दिया कि उनकी आँखों की पलकें बाँध बन सारा जल अपनी दीवारों में समेटने की नाकाम कोशिश कर बैठी.इस चौकन्नेपन में भी मुझे पहचानने की उनकी कोशिश में उपजी उत्सुकता से उनकी सजल आँखों की नीर को मैं अब साफ़-साफ़ देख पा रही थी.मैं उनके करीब बैठ गई.मुझे पहचानते ही उन्होंने अतीत की तिजोरी में बंद पडी अनमोल यादों को अपनी हल्की-फुल्की बातचीत की कुंजी से खोल दिया .अनमोल स्मृतियों के वे रत्न अपने कीमती होने का एहसास कराते हुए मेरे आँचल में सिमटने लगे……सच है अतीत की स्मृतियाँ ताज़ी हवा के झोकों सी होती हैं….स्निग्ध,शीतल और प्राणवान…लगा वर्षों की तपिश झेलते अंकल का अंतर्मन भी उस स्निग्धता से शीतल हो रहा था.हाँ,इस दरम्यान उन्होंने अपने बहू-बेटे के विषय में कोई बात ना की.

मुझे अंकल के पास से बीच में ही उठना पडा क्योंकि मित्र वापस आ चुके थे और नाश्ते की टेबल पर मेरा इंतज़ार कर रहे थे.मित्र के साथ हमारी आपस की बातचीत की रेल कब सरपट भागती हुई औपचारिकता के पड़ाव छोड़ कर अपनत्व के भाव भरे स्टेशन पर दौड़ने लगी हमें आभास तक ना हुआ.गतिवान तंद्रा तब टूटी जब बेहद अटपटी सी बात उनके मुख से निकली,“यमुना,मेरे पिता जब-जब मेरे घर आते हैं आँगन पर लगा तुलसी का पौधा सूख जाता है,वे इतने मनहूस ,उदास और निराश रहते हैं कि घर की प्रत्येक चीज़ निष्प्राण सी हो जाती हैं,”वे धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे…मैं हतप्रभ थी…पिता को नीम का घना दरख्त,विशाल बरगद की छाया,घर की छत ना जाने कितने उपमाओं से सजते सुना था..पर किसी पिता के पुत्र के घर आने से उस पुत्र के आँगन की तुलसी सूख जाए …कितनी बचकानी,घृणित और सर्वथा अस्वीकार्य थी यह बात…….वह पिता जो सदा अपने स्नेह की नीर से संतान रूपी पौधे को सींचता है,उसके आस-पास उग रहे दुखों और कठिनाइयों के खर -पतवार को हटाता रहता है,उसके पल्लवन-पुष्पण पर निःशब्द पुलकित होता रहता है…उसी का आगमन इतना विषैला कि पुत्र के आँगन की ही तुलसी सूख जाए!!!!!!!!!!जो संतान की उंगली थाम उसकी दिशा निर्देशित करते हैं…नन्हे परिंदों सी संतान को इतना सक्षम बनाते हैं कि वह वृहद् आसमां से परिचित होने में कामयाब हो पाता है ….स्वयं के सुखों का त्याग कर संतान की सुख की राह प्रशस्त करते हैं …..उन पिता के प्रति ऐसी अवधारणा.!!!!!!!!!वे पिता जो कभी किसी परेशानी,किसी विपरीत परिस्थिति में अश्क नहीं बहाते……अपनी सारी संवेदनाओं को ताउम्र छुपा लेते हैं उनके गम दुःख का अंदाजा क्या कोई भी संतान कभी लगा सकती है ??????? सच है……………..

उस शख्श के दुःख का अंदाजा कोई लगाए
जिसे कभी रोते हुए  नहीं
देखा किसी ने …..

मुझे चूँकि अगले दिन सवेरे ही अपने शहर आना था अतः मैं उन मित्र से जल्द ही विदा लेकर वापस आई.रात भर यही सोचती रही इस आपसी बोझिल से रिश्ते का असली गुनाहगार कौन है :पिता या पुत्र ???अगले दिन ट्रेन में बैठते ही मित्र के बचपन के दिन किसी यादगार चलचित्र से ट्रेन के बाहर की भागती दुनिया से सामंजस्य बिठाना शुरू कर दिए थे…मैं याद करने लगी .मित्र के प्रति अंकल का बेहद सख्त व्यवहार उनके लिए तो अनुशाषण होता पर मित्र के लिए अपने पिता के प्रति विद्रोह से उपजी एक गाँठ सा होता..उनकी .परवरिश के उस दौर में अंकल की हर सख्ती एक-एक गाँठ बनकर उनके आपसी रिश्तों की डोर को बेहद जटिल और साथ ही बहुत छोटा भी करती गई.अंकल को पुत्र और अपने बीच इस आपसी रिश्तों के सिकुडन और उसकी जटिलता का एहसास कभी ना हो सका ..शायद उनके कार्य की व्यस्तता या फिर उनकी पद,प्रतिष्ठा,रूतबे ने कभी इसका आकलन और पुनर्वालोकन करने का वक्त ही उन्हें ना दिया.माता पुत्र के करीब थी पर उनकी परम्परा ने उन्हें कभी अंकल के सामने मुंह खोलने ही ना दिया और पुत्र के मन में उपजी वह घृणा अंकल के जीवन की संध्याकाल में उनके कार्य की व्यस्तता के शिथिल होते और उनकी पद ,प्रतिष्ठा,रूतबे के रवि की तेज चमक के ओझल होते ही अब मूर्त रूप में उनके समक्ष साकार हो गई थी.

अचानक मुझे window8 का वह विज्ञापन भी याद आया जिसमें पुत्र पिता से सवाल करता है,अगर अमुक चीज़ का वजन धरती पर इतना है तो चाँद पर उसका वजन क्या होगा?पिता बेरूखी से ज़वाब देता है,”चाँद पर आर्मस्ट्रोंग को ही जाने दो,तुम सवाल हल करो”.

प्रायः ऐसा ही होता है पिता की यह लापरवाही भरी प्रतिक्रिया,रूखा व्यवहार,यहाँ तक कि उनका निशब्द प्यार भी उम्र भर बच्चों को सालता रहता है.

ज़रुरत है कि संतान के प्रति पिता का प्यार और अनुशाषण संतुलित हो. पिता का संतान के प्रति प्यार ऐसा निशब्द भी ना हो कि उनके जीवन सांध्य में वह पुत्र के आवेश भरे शोर की प्रतिध्वनि बन गूंजे …और अनुशाषण भी इतना मुखर ना हो जाए कि जीवन सांध्य पिता-पुत्र के अनबोले रिश्ते के स्याह दर्द में ही डूब जाए.

“अब तुम्हारे आँगन की तुलसी या तो सदा के लिए सूख जायेगी या फिर अब कभी नहीं सूखेगी.”

मेरी आँखों से बहने वाले आँसू भी बर्फ की मानिंद सख्त और सर्द हो गए थे ….जिन्हें बहना आता था पर आज ना बहने की जिद लिए बैठे थे….मैं जानती थी …….बचपन की यादों में बसे ऊँची कद-काठी वाले प्यारे से सुदर्शन अंकल की छवि की जगह अब सर झुकाए बैठी एक कृशकाय काया सदा के लिए अंकल की यादों का पर्याय बन जायेगी .

मैं यहाँ लेखक Adam Kahane  की पुस्तक Power and Love:A Theory and Practice Of Social Change के महत्वपूर्ण उद्धरण का ज़िक्र करना चाहूंगी “You have to deliberately practise both:power and love,power and love like walking with your left foot and then right foot over and over and over…….. “अंकल जैसे कई बुजुर्गों की गलती कहूँ या नियति पर जब कभी ऐसे वाक्यात देखूंगी यह बात ज़रूर याद आयेगी कि परवरिश के दौरान पिता संतान को अपने वास्तविक कद का ही सदा एहसास कराये जिसमें थोड़ी अनुशाषण की कड़ी धूप हो तो थोड़ी स्नेह की शीतल छाँव भी हो फिर पिता के जीवन सांध्य में आपसी रिश्तों का दीपक खुद-ब -खुद जलता रहेगा क्योंकि उसमें नेह की कमी कभी ना होगी
.

बुजुर्ग दरख्त की ठंडी छाँव से होते हैं पर उन्हें भी यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वे अपने पुत्र के पास प्रसन्नचित रहे और अधिकाधिक रूप से स्वयं को व्यस्त रखें .उनकी खुशी संतान के जीवन में ऊर्जा बन उन्हें संचालित करती रहती है.उम्र के साथ शारीरिक व्याधियां भी सहचरी सी हो जाती हैं पर उसे भी स्वीकारना पड़ता है चाहे खुशी से इस कमजोरी को उम्र का तकाजा मान लें और सहजता से लें या फिर दुःख और उदासी से शेष ज़िंदगी को भी निराशा के बादल में छुपा लें यह अपने-अपने नज़रिए हैं.

प्रत्येक संतान को भी पिता की अहमियत और उनके कद का अंदाजा अवश्य होना चाहिए ….एक दिन वे भी बुजुर्ग होंगे ….उन्हें अपने पिता को यह एहसास दिलाना होगा कि वे जानते हैं …..

सच है माँ हमारी जन्मदात्री,तो उस पल के मददगार हो तुम
मुझ अनगढ़ प्रस्तर को तराशने वाले, अदद शिल्पकार हो तुम
…………..
माँ झलक गहरी ज़मीं की तो वृहद् आसमां के दीदार हो तुम
मेरे स्वर्णिम स्वप्नों  को मूर्त रूप देने वाले संगतकार हो तुम
………..
डांट-फटकार के अनुशाषण से, करते हमें तैयार
हो तुम
बस दो कदमों की आहट की एक सख्त सी पुकार
हो तुम
…………….
अपनी समस्त संवेदनाओं को छुपाने वाले नाटककार हो तुम
स्नेह से सराबोर पर मूक निशब्द प्रेम की झंकार हो तुम
……………..
मेरी सुप्त प्रतिभा को झंकृत करने वाले संगीतकार हो तुम
और सही पल्लवन पुष्पण के लिए मज़बूत आधार हो तुम

………….
मेरी हर उपलब्धि,हर कामयाबी की एक यादगार हो तुम
रिश्तों के बिखरे पुष्पों को सूत्र में पिरोते मालाकार हो तुम
………….

इस अनुपम मंच की वैचारिक दुनिया से जुड़े मेरे सभी अज़ीज़ साथियों /ब्लोग्गेर्स को father ‘s day पर यमुना की ढेरों शुभकामना .

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