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वह अर्थशास्त्र(economics) की छात्रा थी पर उसे साहित्य में भी गहरी रूचि थी.लक्ष्य तो हिन्दी साहित्य विषय में मास्टर डिग्री लेकर फिर PHD करना था पर अभिभावक ने राह दिखाते हुए कहा अर्थशास्त्र में स्कोप ही स्कोप है,बस उसे इसी डिग्री को चुनना पडा.अब तो हर कक्षा बस अंतर्द्वंद की नई कहानी होती थी.‘जहां ना जाए रवि वहां जाए कवि’ की कहावत अपने चरमोत्कर्ष पर प्रभावकारी होती .अर्थशास्त्र की कक्षा में व्याख्यान (lecture) गरीबी की समस्या के कारण ,निदान और सरकारी प्रयास पर होते तो उसे दिनकर जी की ‘श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बच्चे अकुलाते हैं ‘ पंक्तियाँ ज्यादा करीब लगती ,समस्त आंकड़े कहीं पीछे छूट जाते …….उसके लिए मांग और पूर्ति का नियम (law of demand and supply)वस्तु और सेवाओं के उत्पादों से ज्यादा तालुकात इस बात पर रखता कि चाँद पर सितारों से अधिक संख्या में कविताएँ क्यों लिखी गई क्योंकि चाँद की पूर्ति सितारों से कम है अतः चाँद की मांग साहित्य में सितारों से ज्यादा है……..व्याख्यान हरित क्रान्ति(green revolution) पर चल रहा होता पर उसके ज़ेहन में बंकिम चन्द्र चटर्जी की ‘सुजला सुफला शस्य श्यामला’ की स्वर लहरी गूंजती थी….कुल मिलकर बेहद अंतर्द्वंद होता .साहित्य की सारी संवेदनशीलता को स्वयं में समाये दिल और अर्थशास्त्र के आंकड़े याद करता उसका दिमाग ,उन दिनों छात्रा को emotions और intellect के दो नावों पर सवार रखता था .
ऐसे ही एक कक्षा में जनवृधि -कारण और निदान(population growth ) के व्याख्यान पर one child norms of china को निदान के एक बिंदु के रूप में रखा गया.इस बार छात्रा ने बेहद संजीदगी से इसे दिल और दिमाग दोनों पर लिया.अब यहाँ कोई कशमकश नहीं…..अभाव का सामना ना करने के लिए इस दिशा में वह एक छोटा कदम तो भविष्य में उठा ही सकती है.यह थी दिमाग की आवाज़ और दिल ने कहा वन में भी एक शेर का ही महत्व है.नभ में एक आफताब दिन रोशन करता है तो माहताब रात रोशन करता है.बस ठान लिया ;मान लिया >one child norms of china के निदान को.
उस दिन का संजोया हुआ भविष्य कुछ ही वर्षों में वर्त्तमान भी बना .अब छात्रा एक प्यारी सी पुत्री की माँ बन चुकी थी.उसने घर में सभी सदस्यों को अपना फैसला भी सुना दिया…. बस यही पहली और आख़िरी संतान है.एक परम्परावादी परिवार ने उसके इस कदम को स्वीकारना ही नहीं चाहा.हर दिन एक नया प्रश्न-….वंश कैसे आगे बढेगा??? छात्रा के रूप से एक परिपक्व स्त्री के रूप में परिवर्तित वह ज़वाब देती,”भारत के शक्तिशाली वंश गांधी परिवार का वंश आज भी कैसे चल रहा है? तीर की तरह अन्य प्रश्न उसे बेध जाता ,”बुढापे में देखभाल कौन करेगा ? तीर की चोट खा कर भी ना हारने वाली वह कहती,“अगर वृद्धावस्थामें बेटे ही देखभाल के लिए ज़रूरी हैं तो वृद्धाश्रमों की संख्या में उतरोत्तर बढ़ोतरी क्यों हो रही है? हरिद्वार जैसे तीर्थस्थानों में इतनी वृद्धाएं अकेलेपन को जीने को क्यों अभिशप्त हैं?“पर नए दिन की तो शुरुआत ही नए प्रश्न से होती-“बेटे नहीं तो सुख नहीं,एक आँख भी आँख होती है क्या?”उसके ज़वाब बहुत ही सधे होते,”क्या सुख का सम्बन्ध संतानों की संख्या से है ? प्रत्येक इंसान को अपनी ज़िंदगी तो स्वयं ही जीनी होती है .कभी लाखों की भीड़ में इंसान तनहा हो जाता है और कभी अकेलेपन में भी कई के मौजूद होने के एहसास से भरा होता है.और फिर इस बात की क्या गारंटी कि एक से ज्यादा बच्चों को ईश्वर अमर कर देगा?उपहार सिनेमा घर के अग्निकांड में एक ही परिवार के दो बच्चे असमय काल कवलित हुए,गीता और संजय चोपड़ा(बहन-भाई) एक साथ ही इस संसार से विदा लिए.”
उसका सोचना सही था अर्थशास्त्र विषय की इंटेलेक्चुअल छात्रा के रूप में भी और साहित्य में अभिरुचि रखने वाली संवेदनशील इंसान के रूप में भी.राजतंत्र हो या प्रजातंत्र विषमताएं,असमानताएं तो बनी ही हुई हैं .धनी-निर्धन के बीच की खाई ना राजतंत्र में पटी ना ही प्रजातंत्र में ख़त्म हुई.वंश वृद्धि,क्रियाकर्म में पुत्र के होने का महत्व जैसी झूठी बेबुनियाद दलीलों ने कन्या भ्रूण ह्त्या,जन वृद्धि ,गरीबी जैसे ना जाने कितनी समस्याओं को जन्म दे दिया है.
पर छात्रा से परिपक्व स्त्री के रूप में तब्दील हो चुकी वह मनुष्य स्वभावानुसार आज भी यदा-कदा अंतर्द्वंद में ही जी रही होती है.
अर्थशास्त्र के एक सैद्धांतिक पाठ को व्यवहार में लाकर उसका मस्तिष्क संतुष्ट है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने में एक नन्हा कदम उसने ज़रूर उठाया .पर दिल तो आज भी साहित्य की संवेदनशीलता से दो चार होता है जब उसकी प्यारी पुत्री पूछती है,”माँ,आपको तो किसी दोस्त की आवश्यकता नहीं होती रही होगी आपके भाई-बहन ही आपके दोस्त बन जाया करते होंगे.माँ,आपकी अल्बम देखूं तो सही;कितनी यादें समेटी हैं आपने अपने भाई बहनों के साथ ? माँ,मैं अपने कई दोस्तों के बीच भी स्वयं को हमेशा अकेला क्यों पाती हूँ?”
माँ समझाती है……………
आबाद गुलिस्तां करने को सिर्फ एक ही बुलबुल काफी है
गुलशन महकाने को खुशबूदार बस एक ही गुल काफी है
घने तम को चीरने में रोशनी की बस एक लकीर काफी है
गीतों की स्वर लहरी बिखेरने ज्यों एक ही गुंजन काफी है.
पुत्री संतुष्ट होती है…माँ के लिए तो वही सब कुछ है—एक बुलबुल ,एक महकता गुल,एक गुंजन.वह माँ के सारे प्यार की एकमात्र हकदार….किसी का हस्तक्षेप नहीं उस प्यार में ….??
और फिर उस स्त्री ने पुत्री को एक गूढ़ मंत्र दिया —“इंसान अकेला आया है;अकेला जाएगा.सफ़र के साथी की तरह लोग मिलते हैं ,अपनी मंजिल आने पर बिछड़ भी जाते हैं….सबकी मंजिल जुदा-जुदा है……कोई किसी का संगी नहीं…..अपनी ज़िंदगी स्वयं ही जीनी होती है…..उम्र भर कोई साथ नहीं निभा पाता….इसलिए अपनी ज़िंदगी की इबारतें अकेले ही लिखनी है.“और कुछ मशहूर पंक्तियों से पुत्री के अकेलेपन को तसल्ली भी दी,विश्वास भी और साहस भी दिया……..
अकेला चला था,अकेला चलूँगा
सफ़र के सहारों न दो साथ मेरा
सहज मिल सके वह नहीं लक्ष्य मेरा
बहुत दूर है मेरी निशा का सवेरा
अगर थक गए हो तो तुम लौट जाओ
गगन के सितारों न दो साथ मेरा.
आप सबों से कुछ अहम सवाल
पुत्र और पुत्री में फर्क क्यों ?जन्मा बच्चा सिर्फ संतान क्यों नहीं?सुख की गारंटी सिर्फ पुत्र से क्यों ?क्या एक स्वस्थ,सुन्दर ,सुशील संतान के माता-पिता बनने का गर्व इस बात से ऊपर नहीं कि वह पुत्री है या पुत्र ?
चलो एक कदम हम भी बढाएं;ज्ञान सिर्फ सैद्धांतिक ही क्यों ;जीवन के व्यवहारिक पहलू को भी क्यों ना छू जाए!!!!
ON THIS NAVRAATRI
WISHING D BEST LUCK TO ALL THE PARENTS HAVING A DAUGHTER AS THEIR SINGLE CHILD
MAY GOD SHOWER YOUR DAUGHTER WITH HIS BLESSINGS .
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