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लम्हों ने खता की है;सदियों ने सजा पाई है

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“तारीख की नज़रों ने वो मंज़र भी देखे हैं
जब लम्हों ने खता की है और सदियों ने सज़ा पाई है”

क्षणिक आवेश में लिए गए कदम का अंजाम कितना भयावह हो सकता है इस बात का गवाह बना गुडगाँव का मानेसर स्थित संयंत्र,जहां आगजनी की घटना हुई .आश्चर्य तो इस बात का है कि हर छोटी-बड़ी घटना पर चिल्ल-पों मचाने वाले चैनल,समाचार पत्र ने इस घटना क्रम में मारे गए अवनीश कुमार देव जी की जघन्य ह्त्या को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं दी.इस अनुपम मंच पर भी सिर्फ डॉक्टर आशुतोष जी के तीन ब्लॉग:गुडगाँव की कडवाहट(२० जुलाई),मारुती और आर्थिक स्थिति (२२ जुलाई),मारुती और पंचायत(२४ जुलाई) मुझे देखने को मिले .यही अगर किसी बड़े अधिकारी द्वारा किसी श्रमिक के साथ हुआ होता तो स्वयं को आम जनता का  शुभचिंतक और हितैषी नायक कहलाने वाला मीडिया उस अधिकारी की गत रात्रि के भोजन,परिणाम स्वरुप उससे उत्पन्न होने वाली आक्रामक भावनाओं,उसके हर अच्छे कार्य को बुरे लेप की कलई के साथ एक ही दिन के कई समयों में प्रसारित करता रहता और देश-विदेश की सारी संवेदनाओं को उस श्रमिक के पक्ष में करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ता.पर अमानवीय ढंग से की गयी हिंसा और ह्त्या में मारे एक अधिकारी और उसके परिवार की व्यथा में इलेक्ट्रौनिक मीडिया,प्रिंट मीडिया,आम जनता.औद्योगिक जगत सभी मूक हो गए हैं.जैसे पत्थर की अहलैया.काश इस ब्लॉग को पढ़कर ही या इस ब्लॉग के स्पर्श मात्र से ही इनमें से कोई भी पाषाण मूर्ति सजीव हो उठती!!!!!!!!!!

क्या एच आर महाप्रबंधक अवनीश देव जी एक इंसान नहीं थे,या एक आम इंसान की तरह ही उनका दुःख-दर्द हम सभी के दुःख जैसा नहीं है?रोजी-रोटी की ज़द्दोज़हद में अपनी जमीन,अपनी माटी से उनका पलायन और फिर सेवा देने के दौरान ऐसी जघन्य ह्त्या क्या उनके परिवार की दो पुत्रियाँ, उनकी विधवा पत्नी के दुखों के आंसू से हमारी संवेदनाएं नहीं जुड़नी चाहिए?जिस प्रकार श्रमिक अपना जन्म स्थान छोड़ कर रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्य में जाते हैं उसी तरह वे (अवनीश जी रांची से गुडगाँव)भी रोजी-रोटी के लिए अपनी ज़मीं छोड़ कर गए थे. एक एच आर महाप्रबंधक का पद जितना ज़िम्मेदारी पूर्ण होता है उतना ही संवेदनशील भी है.किसी भी कंपनी के विजयनगर के क्षेत्र के कृष्णदेव राय का तेनालीराम और अकबर के दरबार के बीरबल सदृश बुद्धिमान और बुद्धिजीवी शख्श जो हर समस्या के सकारात्मक और संतुलित समाधान के साथ हर वक्त उपलब्ध रहता है,मानवीय रिश्तों के बीच तालमेल के साथ-साथ बाज़ार में भी कंपनी की सुन्दर छवि बनाते हुए कंपनी के जीवन रक्षक की अहम् भूमिका निभाने में रात-दिन काम करने में कोई कसर नहीं छोड़ता ऐसे महाप्रबंधक की जीवन रक्षा की ज़िम्मेदारी किसी की भी नहीं बनती है ?कंपनी,सरकार, श्रमिक यूनियन नेता वहां की स्थानीय जनता या फिर श्रमिक कौन है इस जिम्मेदार पद सम्हालने वाले व्यक्ति का रक्षक ?इस घटना से इस बात का कोई उत्तर मुझे नहीं मिल रहा है.अवनीश देव जी के परिवार के आंसू से देश क्यों नहीं द्रवित हुआ? ऐसे जिम्मेदार पदों पर अपनी अहम् भूमिका निभाने वाली बौधिक संपदा की रक्षा के लिए देश क्या करेगा ?मुझे इस प्रश्न का ज़वाब चाहिए.अब कंपनी चाहे हरियाणा राज्य को छोड़ कर गुजरात जाने का विचार करे या फिर किसी अन्य राज्य में इससे देव जी के परिवार के दुखों के बादल तो कभी नहीं छंट पाएंगे .शेष सभी अन्य कंपनी के भी अधिकारियों की सुरक्षा का प्रश्न यक्ष की तरह सामने है.

श्रमिक यह भूल जाते हैं कि जिन चंद लोगों के दुष्प्रभाव में आकर वे आगजनी,हड़ताल,हिंसा, गेट जाम जैसी कार्यवाही को अंजाम देते हैं उन लोगों का सरोकार श्रमिक समस्या से कम और अपने निजी मंसूबों से ज्यादा होता है.जो कंपनी उन्हें रोजगार देती है,उनके घर के चूल्हे जलने में सहायक होती है उन्ही के महाप्रबंधकों के साथ वे “जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो”की कहावत को चरितार्थ करने से नहीं चुकते.क्या उनकी नासमझी और अशिक्षा के शेल इतने कड़े होते हैं कि एच आर जैसे बुद्धिजीवी पदवी के लोगों की शांतिपूर्ण वार्ता उसे भेद नहीं पाती और मुट्ठी भर अराजक बाह्य तत्वों की गर्मी उसे पिघला जाती है.वज़ह स्पष्ट है सदियों से श्रमिक और मालिक के बीच की खाई को पटती देख कर भी बाह्य तत्त्व श्रमिकों को गुमराह कर देते हैं.जो दोस्ताना सम्बन्ध श्रमिक बाह्य तत्वों से रखते हैं क्या वही सम्बन्ध वे अपने कंपनी के अधिकारियों से नहीं रख सकते हैं?????????.क्या यह सीधी सी सरल बात श्रमिकों को समझ में नहीं आ सकती कि शांतिपूर्ण वार्ताओं से समस्याओं का हल निकालना ,स्थितियों को जटिल बनाने वाले अवांछित बाह्य अराजक तत्वों का आत्मानुशासित होकर बहिष्कार करना कंपनी के हित के साथ-साथ मजदूरों के भी हित में भी है?

लगभग प्रत्येक कंपनी जिस भी ज़मीं पर संयंत्र लगाती है उस ज़मीं के लोगों को रोज़गार देने के साथ साथ उनके क्षेत्र की शिक्षा,स्वास्थय जैसी आधारभूत संरचनाओं का भी पूर्ण विकास करने में अहम् भूमिका निभाती है.अपने लाभ का हिस्सा श्रमिकों में भी बांटती है और इस तरह देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाती है .हर कार्य क्षेत्र को श्रमिकों को अपना कार्य मंदिर या इबादत खाना सदृश समझना चाहिए पर अफ़सोस इस बात का है कि वे हिंसा और मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं.
सरकार वैश्विक (ग्लोबल)होने का दावा करती है तो ग्लोबल स्तर पर उद्योग जगत की छवि खराब करने वाले ऐसे अराजक लोगों की पहचान कर उन्हें दण्डित क्यों नहीं करती है?किसी भी कंपनी के संचालन में बाह्य अराजक तत्वों को किस की मर्जी से पनाह मिलती है जो असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा पर पहुँच कर देव जैसे अधिकारियों को काल का ग्रास बना डालते हैं और ऐसी करतूतों में कोई उन अधिकारियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी तक नहीं लेता है.
अगर इन वारदातों और ऐसे अराजक तत्वों पर रोक नहीं लगी तो वह दिन भी दूर नहीं जब ऐसी आवेश पूर्ण गलती की सज़ा सदियों तक देश को भुगतनी पड़ सकती है क्योंकि ऐसे माहौल में कोई भी वैश्विक कंपनी यहाँ निवेश करने ,नए संयंत्र लगाने या फिर किसी देशी कंपनी के साथ भागीदारी लेने से गुरेज़ करेगी और भारत के विकासशील देश से विकसित देश में तब्दील होने का स्वप्न दिवास्वप्न ही बन कर रह जाएगा .
the crucial question:-
who will take the responsibility of safety and protection of our intellectuals ?

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