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हम संवेदनहीन हैं?चीखें हमें नहीं झकझोरतीं?

V2...Value and Vision
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yakshaमेरे प्रिय पाठकों/दोस्तों/लेखकों, आज बहुत दिनों बाद लेखनी उठाया,सच कहूँ तो हिम्मत ही नहीं हो रही थी. हर ब्लॉग में सकारात्मकता की बात कहने वाली और उस पर अमल भी करने वाली यमुना कुछ टूट रही थी ,उसके शब्द बिखर रहे थे पर फिर उन्हें समेटा,आप सबों से विनती है कि इस ब्लॉग के प्रत्येक शब्द को ध्यान से पढियेगा और फिर प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा क्योंकि यह ब्लॉग पुरे समाज के दर्द से सम्बंधित है.j

लड़कियों के प्रति असंवेदनशीलता और बढ़ते अपराध को राष्ट्र व्यापी अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि यह किसी एक गली,मोहल्ले गाँव या शहर की सीमा तक सीमित नहीं अपितु देश के प्रत्येक कोने में हर दिन ,हर कुछेक घंटों में घट रहा है.कुछ घटनाएं प्रकाश में आ जा रही हैं कुछ अँधेरे में घुटती सिसकी बन सारी ज़िंदगी की आह में परिवर्तित हो जा रही हैं.हर गली में जब रावण हों तो इतने राम भी कहाँ से आ पाएं?
गोहाटी की घटना और इससे जुड़े सवाल ज़वाब इतना ज्यादा देख-सुन रही हूँ कि घटना पास के किसी गली में घटित सी महसूस हो रही है और उस अनजान छवि में अपने ही घर परिवार की बेटियाँ दिख रही हैं.सवाल विचार-विमर्श से भी ज्यादा इस बात का है कि बार-बार होती इन मिलती-जुलती शर्मनाक घटनाओं से कोई कुछ भी सबक नहीं लेता है.कानून पहले से भी ज्यादा गहरी निद्रा के आगोश में समा जाता है,संस्थाएं वाकई क्या करना चाहती हैं ज्ञात ही नहीं होता,समाज के तथाकथित सभ्य कहे जाने योग्य व्यक्ति “हम तो रहे मस्ती में;आग लगे बस्ती में”की भावना का चोला पहन लेते हैं.हाँ, एक वर्ग जो बेहद सक्रिय हो जाता है वह है मीडिया.जन-जन तक खबर पहुचाना और उन्हें जागरूक करता है पर अपनी इस कार्य सीमा की लक्षमण रेखा को वह भी कभी लाघने की चेष्टा नहीं करता.
इसी वर्ष छुट्टियों में जब गोहाटी भी गयी तो कामाख्या देवी के दर्शन की उत्कंठा ना रोक सकी.उस दिन भारत बंद था.जोखिम लेते हुए अधिक किराया देकर भी हम गोहाटी की सडकों पर निकल पड़े.किसी ने हमें कहीं भी नहीं रोका और हम देवी दर्शन कर बहुत हर्षित थे .मैं सोच ही रही थी कि इस जगह पर कितनी शान्ति है बंद का कोई भयानक असर नहीं है पर मेरे इस निष्कर्ष को अचानक तेज गति से भागती एक काली कार ने झटका दिया .उस कार में ज़रूरत से ज्यादा संख्या में युवक युवती सवार थे और बेहद असभ्यता से चिल्लाते हुए जा रहे थे हम जब तक स्वयं को संभालते; कार नज़रों से ओझल हो गयी थी.पर उस कार से फेंका प्लास्टिक का बोतल हमारे सामने गिरा था.जब कलयुगी चीर हरण की शर्मनाक घटना टी.वी पर देखा तो उस दिन की घटना भी चलचित्र सी घूम गयी.सभ्य समाज का सभ्य तबका और उसमें एक भी श्रीकृष्ण नहीं जो इस दुष्कृत्य को रोक सके.
आज हर शहर,हर गाँव, काम(सेक्स) की ज्वलंत बारूद के ऊपर बैठा है जिसे हल्की चिंगारी मिली नहीं कि शोला बन भड़क उठता है और इंसानियत भस्म कर देता है.मैं इस घटना से विचलित इसलिए भी हूँ क्योंकि कई सवाल मस्तिष्क पर उभर रहे हैं……….

१—जब कैमरा से शर्मनाक तस्वीर ली जा रही थी और तथाकथित चहरे उकसाए जाने पर ऐसा कर रहे थे तो क्या उन्हें यह भान नहीं हुआ कि सूचना तकनीक के इस नए युग में पलक झपकते ही यह तस्वीर जंगल की आग की तरह दुनिया के कोने-कोने में पहुँच सकती है ??ऐसा कौन सा प्रलोभन था जो बदनामी के भय पर भारी पड़ गया ? या फिर इन दिशाहीन चेहरों ने यह सोचा कि “बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा” ? किस भावना के तहत पुरुषत्व का ऐसा शर्मनाक प्रदर्शन किया गया?

२–-रात के ११ बजे सड़क पर भागती जिंदगियों के पास कुछ पल भी क्यों नहीं रहा कि वे रुक कर उन वहशियों से लड़की को बचा लेते.यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा की सीमा थी या फिर उन भागते और जान छुडाते लोगों की नज़र में किसी फिल्म की शूटिंग का दृश्य था जिसे वे देखना ही नहीं चाहते थे .तमाशबीन लोगों में से किसी ने भी फ़ौरन पोलिस को क्यों नहीं फोन किया और अगर किया तो आधे घंटे तक यह सब कैसे चलता रहा?

३—बार में जाने की उम्र २१ वर्ष थी तो पीडिता कैसे बार के अन्दर जाने की इजाज़त पा गयी.कोई भी बार या अन्य संस्था अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां क्यों उडाती है?

4 —जन्म दिन मनाने गए उसके बाकी दोस्तों ने उसकी मदद क्यों नहीं की और घर पर तुरंत सूचना क्यों नहीं दी? क्या ऐसे दोस्तों की खुशी में शरीक होने के लिए बच्चे अपने ही बड़ों से सवाल ज़वाब की हदें पार कर जाते हैं?

५ — तथाकथित अपराधी चेहरों के घर-परिवार की भी ज़िम्मेदारी है . अभी कुछ दिन पूर्व ही एक वक्तव्य  सुना कि अपराधी के अभिभावक को सज़ा दो.मुझे एक कहानी याद आयी .एक लड़का बचपन से ही गलत काम करता था पर माता ने उसे कभी नहीं फटकारा या रोका.बड़ा होकर वह एक शातिर अपराधी बना और उसे फांसी की सज़ा सुनायी गयी.जब उससे अंतिम इच्छा पूछी गयी तो उसने कहा मैं अपनी माता के कान में कुछ बोलना चाहता हूँ.माता के आने पर उसने पुरी शक्ति लगाकर उसके कान को काटा और कहा “तुम इसी कान से मेरे सारे अपराध सुनती रही और मुझे कभी नहीं रोका-टोका इसलिए तुम्हे भी सज़ा मिलनी चाहिए.”
क्या माता-पिता,घर-परिवार का कर्त्तव्य नहीं कि वे यह ध्यान रखे कि अमुक सदस्य कहाँ से और क्यों गलत चीज़ें(तेज़ाब जैसी)घर ला रहा है,वह कब घर से जाता है और कहाँ-कहाँ जाता है,किन लोगों से मिलता है.

सवाल कई हैं .समाज में अश्लीलता की बाढ़ आ गयी है.क्लब,पब, बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स की संख्या जितनी ज्यादा है उतनी पुस्तकालयों ,व्यायामशालाओं की नहीं और अगर है भी तो कुछ युवा अपनी अतिरिक्त ऊर्जा को अच्छे साहित्य या कला की ओर नहीं ले जाना चाहते.सिनेमा हाल में घटिया दृश्यों पर सर्वाधिक तालियाँ बजती है मानो बरसों की दमित इच्छा हर हाल में बाहर निकलना चाहती है.
अब सवाल यह है कि ऐसी किसी भी मिलती-जुलती घटना को रोकने के लिए उसके घटने से बहुत पूर्व ही preventive measures के रूप में हमने या आप में से किसी ने क्या किया .
मुझे आज भी याद है एक किशोर विद्यार्थी लड़कियों के wash रूम में अश्लील चित्र छुप कर बनाता था.जब हमें शिकायत मिली मैंने अपने स्तर पर व्यक्तिगत रूप से एक अलग उपाय किया.उस अश्लील चित्र के नीचे मैंने एक और कागज़ चिपकाया और लिखा,“बेटा!आप एक बहुत ही अच्छे चित्रकार हो पर उस कला को गलत दिशा में ले जा रहे हो .चाहो तो अपनी गलती मानते हुए मार्गदर्शन ले सकते हो मैं आपको पहचानती हूँ आप कक्षा नौ के विद्यार्थी हो”हालांकि मैंने यह अंदाज़ से लिखा था क्योंकि इसी वर्ग से जीवविज्ञान विषय में प्रजनन और human anatomy का अध्याय पढ़ाया जाता है.उस विद्यार्थी ने अपना नाम सार्वजनिक ना करने के आश्वासन के साथ अपनी गलती को स्वीकार किया और आगे पढ़ाई में बहुत उम्दा प्रदर्शन भी किया.वह कई प्रतियोगिताओं में अव्वल रहा. उस बच्चे में आये सुधार को देखते हुए इस बात की चर्चा कर वाहवाही लूटना व्यर्थ था अगर वह फिर भी नहीं सुधरता तो मैं उसकी प्रतिभा से उसे रु-ब-रु कराने के लिए कुछ और सकारात्मक उपाय सोचती पर अपने विद्यार्थियों को बर्बादी के कगार पर कभी खडा ना होने देती..युवाओं में ऊर्जा है,जोश है; जुनून है पर उसका निस्तारण(outlet) सकारात्मक नहीं है.क्या यह ज़रूरी नहीं कि ऐसी घटनाओं की debate  में वक्त बर्बाद करने की बजाय जहां खड़े हैं ,वहीँ अपना अहम् कर्त्तव्य निभाएं.अपने घर,परिवार,पड़ोस के बच्चों(लडके-लड़कियों)को सही मार्गदर्शन देकर उन्हें बर्बादी के राह पर जाने से पूर्व ही संभाल लें?
मुझे इस मंच से जुड़े साथियों पर गर्व होता है जो अपने विचारों से ही समाज के कैनवास पर इन्द्रधनुषी और सुनहरे रंगों के साथ उभरते हैं,मैं आश्वस्त होती हूँ ,कम से कम मैं ऐसे कई युवाओं को जानती हूँ जो अपने विचार,आचरण,व्यवहार से कभी भी समाज को विकृत नहीं करेंगे.मैं अपने ऐसे सभी साथियों को सलाम करती हूँ .
पहले कवि पैर के अंगूठे पर भी सौंदर्य से भरी रचना लिख लेते थे.आज इतना खुलापन कि छुपाये जाने वाले अंगों पर गाने के बोल और नृत्य की थिरकन सजने के बावजूद भी लोगों को कुछ कमी लगने लगी है.इतना खुलापन,इतनी आधुनिकता, इतनी बेशर्मी कि समाज का एक तबका “सब चलता है” की गिरफ्त में है.कुछ विज्ञापन बगैर कामोतेजक तस्वीरों के पुरे नहीं होते,कुछ मूवी माँ ,बहन,बेटी की भद्दी गालियों के संवादों के बगैर अपनी कहानी के सन्देश को जनता तक पहुंचाने में असमर्थता महसूस करती हैं .कितनी पिक्चर ऐसी हैं जो हम पुरे परिवार के साथ देख सकते हैं? सफलता के परचम लहराने वाले लाखों अनाम युवा जुगनुओं के प्रकाश की तरह हो गए हैं जिनकी रोशनी से ना साहित्य रोशन हो पा रहा है ना ही फिल्म जगत.
सच तो यह है कि नयी पीढी के कुछ युवा अपनी पुरानी पीढी से कुछ सीखना ही नहीं चाहते या फिर पुरानी पीढी ही उन्हें कुछ दिशा नहीं दे पा रही है.अगर ऐसे अपराध वाकई रोकने हैं तो गलती कहाँ हो रही है उसके मूल को पहचानना आवश्यक है.अगर सभ्यता,संस्कृति,नैतिकता की शिक्षा व्यक्ति –परिवार–समाज—देश–विश्व के क्रम में ना हुआ तो पुनः आदिम युग में लौट जाने का खतरा है.vyasti का सुधार ही samasti सुधार की तरफ बढ़ा कदम है.

अब बात करती हूँ.PANACEA या राम बाण औषधि की …..

गोहाटी की घटना हो या धनबाद की घटना ,माता-पिता और परिवार से गुहार है कि अपने घर के बच्चों, सदस्यों को नैतिकता की शिक्षा दें,उन्हें अवश्य समझाएं कि प्रत्येक लड़की की अस्मिता उनकी स्वयं की बहन-बेटी की अस्मिता सी ही महत्वपूर्ण है .वे इसका सम्मान करें.बच्चे/सदस्य स्वयं पर इतना विश्वास रखें कि अपने पुरुषत्व को साबित करने के लिए उन्हें इतनी घिनौनी और शर्मनाक हरकत ना करनी पड़े.देश का कानून भी इन मामलों में इतना सख्त बनाना चाहिए कि ऐसे घृणित कार्य की ओर बढे कदम उस सज़ा के खौफ से सिहर कर ठिठक जाएं .विद्यालयों में शिक्षक और विद्यार्थियों के लिए समय-समय पर ऐसे workshop रखें जाएं ,उन सबकी counselling कुछ समय अंतराल पर की जाए जो उनमें मानवीय मूल्यों को विकसित करने के साथ-साथ समाज में उनके जन्म के महत्व से भी उन्हें रु-ब-रु करवाएं. जहां पर बहुत शिक्षित तबका नहीं है वहां नुक्कड़ नाटक या ऐसे ही कुछ दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम स्थानीय भाषा में दिखाए जाएं जो जीवन के सही मायने हर सदस्य को समझा सके.समाज के हर इकाई को सजग,संवेदनशील और जागरूक होना पडेगा .आज अन्य के साथ तो क्या कल हमारे साथ यही घटित होने की संभावना नहीं है ?
हम शांतिप्रिय है बचपन से सुन और पढ़ रही हूँ पर इस तरह की घटनाओं पर अब यह कथन मुझे उस समंदर की याद दिलाता है जिसके लिए किसी शायर ने कहा है……………
समंदर शक्ल से कितना शांत लगता है
पर लहरों से घिरा पता नहीं चलता है
मानो शान्ति की बर्फ की हल्की सी जमी परत है और उसके अन्दर अशांति,विवेकहीनता,दिशाहीनता,असंवेदनशीलता का गहरा सैलाब छुपा है जो परत को हलके से छूने मात्र से ही उमड़ पडेगा.

1 ………….
मैंने लोगों को अक्सर कहते सुना है
कि समाज में विकृतता बढ़ रही है
पर यक्ष प्रश्न यह है कि पुरानी पीढी
नयी पीढी को कितना गढ़ रही है
2 ……………….
हम अपने ही सुरक्षा कवच में यूँ
कहो इस कदर क्यों सिमटे हुए हैं?
आधुनिक झूठी चकाचौंध भरी
रंगीन चादर में बस लिपटे हुए हैं
3  ……………….
दूसरों की दुःख,वेदना,व्यथा
कहाँ रुला पाती है हमें भला
मदद किसी की करने के पहले
सोचते हैं हटाओ सर से ये बला
4 ……………….
एक बेहतर समाज की आशा
इस माहौल में कैसे करें हम?
रोशनी के पीछे है गहन अँधेरा
दूर कैसे करें यह विचित्र तम?
5  …………….
स्वयं का यह सुरक्षा कवच बोलो
कब तक हमें भी बचा पाएगा ?

नयी पीढी के स्वर्णिम भविष्य का
इतिहास सोचो,कैसे रचा जाएगा?
6 ………………
हम ना सिमटे अपने आप में
परोपकार की महक बिखरने दें
संवेदनाओं से भरा पैमाना
समाज हित में छलकने दें

7 ………………..
क्या होगा रूप समाज का अगर
सब हो जाएंगे स्वयं में सीमित
हिम्मत से हम करें सामना
प्रत्येक में है साहस अपरिमित
8  ………………
असंख्य सितारे होते नभ में
पर रवि तो एक ही होता है
सुप्त समाज को जागृत करने
अपनी नींद कब वह सोता है ?

………………..

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