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इस ब्लॉग को लिखने के पीछे दो उद्देश्य हैं ;प्रथम सभी पाठकों/लेखकों को उनके बचपन के दोस्तों की याद दिलाना और यह भी ध्यान रखना कि हम बड़े ऐसी कोई रंजिश आपस में ना रखें जिसका प्रभाव हमारे बच्चों के मस्तिष्क पर फ्रेम में जडी किसी तस्वीर सा स्थिर हो कर रह जाए.दुसरा यह सन्देश देना कि अपने बच्चों को उनके दोस्तों के साथ जी भर कर खेलने दें. सुखद साथ की ये स्मृतियाँ आगे की राह में उनके चरित्र के अल्पांश का निर्माण भी कर जाती हैं .बस इतना ध्यान ज़रूर रखें कि आपके बच्चे, अपने दोस्त या बाल सखा के संग एक स्वस्थ वातावरण में खेलें .
दरअसल ,इस बार जब मेरी बिटिया हॉस्टल से घर आयी तो बातों ही बातों में उसने सहसा तीर की मानिंद एक प्रश्न छोड़ दिया ,“माँ, मैं तो फ़ोन पर अपनी सहेलियों से इतनी सारी बातें करती हूँ क्या आपको अपने बचपन की किसी सहेली की याद नहीं आती?“अब यह बाल गोपाल का यशोदा मैया से पूछे प्रश्न “मैया मेरी कबहूँ बढ़ेगी चोटी”जैसा बाल सुलभ प्रश्न तो था नहीं जिसमें एक प्रश्न के उत्तर के बाद उस उत्तर से ही प्रश्नों का निर्माण होने की अंतहीन क्रिया चलती रहती,यह तो बालपन और किशोरावस्था के संधिकाल का मासूमियत भरा अल्हड सा प्रश्न था जहाँ उत्तर की प्रतीक्षा का भी धैर्य नहीं होता.मैंने ज़वाब दिया,”याद आती है”उसने छोटे से शब्द ‘हूँ’ से काम चलाया और अपनी पढ़ाई में लग गयी.
पर उसके प्रश्न ने मुझे वो फाइल खोलने को विवश कर दिया जिसमें मैंने अपनी छठी,सातवीं…….कक्षाओं के परिणाम,समाचार पत्र में छपी कुछ रचनाओं की कटिंग और तमाम ऐसी चीज़ें सम्हाल कर रखी थीं जिनसे खाली वक्त में रु-ब-रु होना मुझे कभी-कभी बेहद सुकून देता है. .व्यग्रता से खोजने के बावजूद मैं वो हासिल ना कर पायी जो चाहिए था. बिटिया के जाने के बाद उसके प्रश्न से जुडी खोज की अधूरी कोशिश पुनः आरम्भ हुई और कहते हैं न “जिन ढूंढे तिन पाइयाँ”मुझे वह सम्पति मिल गयी जो हर किसी के बचपन की अनमोल धरोहर होती है चाहे वह द्वापर युगीन कृष्ण-सुदामा हों या फिर आधुनिक काल की मेरी बेटी.
मुझे मेरी प्यारी सी सहेली अनुपमा सिंह की तस्वीर और उसका लिखा हुआ अंतिम ख़त जिसके पन्ने बिलकुल पीले पड़ चुके थे वे मिल गए.अब यह अनुपमा कौन थी यह भी बताती हूँ,नाम के अनुरूप वास्तव में अनुपम,उस उम्र की लड़कियों से बिलकुल परे,चंचलता,चपलता से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता ना था,गहरी बड़ी-बड़ी आँखों में अजीब सी उदासी झलकती थी.मैं हर गर्मी की छुट्टियो में अपने गाँव जाती थी;पिताजी का यह मानना था कि शहर में पली-बढी लड़कियां अगर गाँव के वातावरण से भी परिचित रहे तो उनके लिए अच्छा ही होगा तब ये तो कल्पनातीत ही था कि गाँव भी शहर की तरह कुछ हद तक ही सही पर आधुनिक सुविधाओं से अवश्य ही सुसज्जित हो जायेंगे.अनुपमा सागर में पढ़ती थी;मेरी तरह वह भी गर्मियों में ही वहां आती थी,मैं आम के बगीचे में खेल रही थी वह मुझे वहीँ मिली.जाने, उसमें क्या आकर्षण था कि मेरा बालमन उससे दोस्ती को इच्छुक हो गया.उसने भी शायद कुछ ऐसा ही एहसास किया था तभी तो उस दिन के उपरान्त हम घंटों बाते करते,पेड़ों पर चढ़ते और खेलते रहते.
एक दिन वह मुझे अपने घर ले गयी,जब मैंने उसकी माँ को वैधव्य हाल में देखा तो पूछा”अनु,तुमने कभी बताया नहीं “उसकी झील सी बड़ी आँखों में मानो सैलाब उमड़ आया,कहने लगी,”मुझे मेरे जन्म का बेहद अफ़सोस है,इधर मैंने दुनिया में आँखें खोली;उधर पापा ने सदा के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं ,माँ का यह रूप अनायास ही मेरे जन्म से जुड़ गया है”उसकी गहरी झील सी आँखों में पानी के स्रोत का रहस्य अब मेरे लिए रहस्य नहीं रह गया था.हाँ, एक बात और हुई उस दिन के बाद से मैं अपने पिता से गहरे जुड़ाव में बंध गयी जो आज भी कायम है.
मैं वापस शहर आ गयी पर कच्ची अमिया से पके आम तक की सारी खुशबू मानो अनु की यादों से जुड़ गयी अगले वर्ष गाँव जाना ना हो सका,दो वर्ष बाद जब गयी अनु फिर दिखी पर मुझसे कटी सी रही,मैंने ही जिद कर उसे आम के बगीचे में बुलाया और कहा,”अनु,मैं इस बार कम दिनों के लिए आयी हूँ ,कल चली जाउंगी,मुझे बस स्टॉप छोड़ने आ जाना“उसने तो मानो अधर ही सी रखे थे,बस हाँ में सर हिलाया और चली गयी.
अगले दिन इंतज़ार में मेरी आँखें पथरा सी गयी पर वह नहीं आयी उसके भाई ने मुझे यह अंतिम पत्र पकड़ा दिया.
उसके बाद मेरा गाँव जाना कुछ वर्ष के अंतराल में होने लगा पर वह मुझे नहीं मिलती, दादाजी ने बताया ब्राह्मण और ठाकुर के किन्ही दो परिवारों में भीषण विवाद हुआ नतीज़तन पुरे गाँव में इन दो वर्णों ने बोल-चाल बंद कर दी है .मैंने पूछा था इसमें हम कहाँ दोषी हैं?दबंग दादाजी की आँखों में क्रोध स्पष्ट दिख रहा था .मैंने भी उनका मान रखते हुए शांत रहना बेहतर समझा .पर बड़ों के इस रवैये को आज तक मेरा दिल माफ़ नहीं कर सका है .अनु मेरी पहली और आखिरी बाल सखी साबित हुई.जब बी.एड. कर रही थी तो अंतिम बार गाँव जाना हुआ पता चला अनु का विवाह हो गया है.
दोस्तों ;उसकी खामोशी,उदासी ,असमय ओढी परिपक्वता ने मुझे उन्ही दिनों से ही कुछ -कुछ संवेदनशील बना
दिया था मैंने यह कविता “अमराइयाँ गाँव की”उसीकी याद में लिखा है ;उसकी तस्वीर,उसके अंतिम ख़त भी इस ब्लॉग के साथ हैं .मैं इस वर्ष अपनी बिटिया, जिसने अपने एक अल्हड से प्रश्न से, मेरे ज़ेहन में पडी धूमिल यादों को ताज़ा कर दिया ;उसके साथ गाँव अवश्य जाउंगी बस ईश्वर से यही दुआ मांगती हूँ कि अनु की खबर ही मुझे मिल जाए……………………ताकि .मेरी खोज को विराम मिल सके.
ओ सखी ,कहाँ भूली हूँ मैं,
घनी अमराइयाँ गाँव की.
वो मस्ती,वो अमिया खाना
और राहत ठन्डे छाँव की
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परिपक्वता में मासूमियत
खासियत तेरे स्वभाव की
कभी बेफिक्री में न हंसना
संकेत करते थे अभाव की
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पहली बारिश का सोंधापन
और खेल कागज़ के नाव की
अब भी दिल में बसी वैसे ही
मीठी यादें तेरे उस गाँव की
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रुनझुन बजती मधुर वह धुन
जो करती नुपुर तेरे पाँव की
पर शोर बहुत है इस दिल में
तेरे उस खामोश से ठांव की
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संभाल रखी हैं निशानियाँ
मैंने एक-एक तेरे चाव की
तेरी यादों के थे कितने ज़ख्म
किसे परवाह थी इस घाव की
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चार दशकों की ये ज़िन्दगी
अब है उन लम्हों के दांव की
तू नहीं है पर तेरी यादें ही अब
हैं अनमोल रत्न के भाव की .
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यह 1982 का लिखा पत्र है
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