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jagranjunction मंच से जुड़े दोस्तों ,यमुना का प्यार भरा नमस्कार,
मुंशी प्रेमचंद्रजी ने एक जगह लिखा था “बचपन वह उम्र है ज़ब इंसान को सबसे ज्यादा मोहब्बत की ज़रूरत पड़ती है,उम्र के इस पड़ाव में अगर इस पौधे को प्यार की तरी मिल जाये तो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी जडें मज़बूत हो जाती हैं”
आज मैं “बाल श्रम”की समस्या लेकर आपके सामने उपस्थित हूँ पर मैं समस्या के साथ समाधान का ज़िक्र अवश्य करुँगी क्योंकि मेरा मानना है कि “its better to light a candle than to curse the darkness” कहते हैं “एक हलकी सी रौशनी भी लाख अँधेरे को चीरती है “मैंने इस समस्या का समाधान अपने स्तर पर इस प्रकार किया है “घर के सारे काम स्वयं ही करती हूँ “आप भी बस इतनी कोशिश करें कि किसी बच्चे को घर पर काम के लिए ना रखें “
घटना उन दिनों की है जब मुझे नवविवाहिता बन अपने नए घर में आये बस चार ही महीने हुए थे. घर के ठीक सामने एक मध्यमवर्गीय परिवार रहता था,दोनों बच्चे पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में घर से दूर दुसरे शहर में रहते थे .अतः पति-पत्नी और एक १३ साल का बच्चा” सोमू” जिसे घरेलू काम के लिए बिहार राज्य से लाया गया था ,घर पर रहते थे .ठीक ९ बजते ही जेल से छूटे किसी कैदी की तरह हर दूसरे तीसरे दिन वह मेरे घर आता;चूँकि मेरे नए मेहमान के आगमन की ख़ुशी माताजी ने पड़ोसियों को भी दे दी थी अतः सोमू के हाथ उसकी मालकिन अचार,पापड़,बड़ियाँ मेरे लिए भिजवाती. वह किसी को चीज़ें नहीं देता था, कहता “पहले नयी कनिया(बिहार में नववधू के लिए प्रयुक्त शब्द )को बुलाओ”जब मैं आ जाती तो फीकी हंसी के साथ, सूनी आँखों से मुझे देखते हुए चीज़ें देकर वापस लौट जाता .उससे मेरा एक अजीब सा नाता बनता जा रहा था ;उस मासूम चेहरे में मैं अपने अजन्मे शिशु का अक्श देखने लगी थी.
फिर एक दिन बुरी खबर मिली”सोमू ने मालकिन को बेरहमी से मार डाला था”यकीनन मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ.“सोमू के मासूम चेहरे पर फीकी और अधूरे रंगों से बनी इन्द्रधनुषी हंसी के पीछे छुपी काली घनघोर घटा का आभास मुझे उसके हर आगमन पर होता था;उसकी हंसी में उत्साह का लाल रंग हमेशा नदारद रहता था,पर मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती थी एक तो नए घर के अपने कुछ अनुशाषण और फिर नए मेहमान के आने की अव्यक्त ख़ुशी”
पता चला मालकिन उसे माता-पिता से मिलने उसके गाँव नहीं जाने देती थी,जब मालकिन ध्यान में लीन थी तभी उसने वार किया था पर उस बच्चे ने अपने क्रोध को निकालने के लिए सोफा,परदे ,कुर्सी सबको फाड़ने की कोशिश की थी,लेकिन क्रोधाग्नि को शांत करने में अक्षम साबित हुआ वह.खैर सोमू को पुलिस द्वारा बाल सुधार-गृह ले जाया गया.
मैं आज तक इस घटना को नहीं भूल पायी,मेरी यह कविता इसी घटना से प्रेरित है “”मासूम सपने””
कहाँ बिखर गए इनके सपने,किन हाथों ये मजबूर हुए?
जिन्हें पहुँचना था शिक्षालय,वे क्यों बाल मजदूर हुए?
बरसता सावन,कश्ती कागज़ की,इनके खेलों से दूर हुए
जूठे बर्तनों,बूट पोलिश संग,थक-थक कर ये चूर हुए !
कथा राजा-रानी और परियों की ,ख़्वाबों से भी दूर हुए
ज़मीनी सच्चाई से लगे,चोट पके-रिसते नासूर हुए….…..
होली बेरंगी,अंधेरी दीवाली,नसीब न लड्डू मोतीचूर हुए
कभी अवशेष, कभी जूठन से,क्षुधा पूर्ति को मजबूर हुए .
मेघों से गिरते सारे जल-कण ,इनकी आँखों के नूर हुए
बेरंग हो गयी जिंदगियां,खुशियों से ये बच्चे महरूम हुए .
औज़ार पकडे ये कोमल हाथ,कलम से कितने दूर हुए
ईंट भट्टियों में तप-तप कर,नियति के हाथों क्रूर हुए.
समाज की सारी विसंगतियों का,शिकार ये बेकसूर हुए
कहाँ खोयी इनकी मासूमियत,कैसे अरमान चूर-चूर हुए.
आज के संग,दर्पण कल के,हो धराशायी चकनाचूर हुए
कई मासूम बदनसीबी से, नापाक गलियों में मशहूर हुए.
असमान अर्थव्यवस्था में तराशे हुए,क्या ये कोहिनूर हुए?
बचपन सच्चा और सुंदर है,तो फिर क्यों ये बेनूर हुए?
इन के भविष्य की चर्चाएँ तो, समाज में भरपूर हुए .
सारे ख्वाब पूरे करेंगे इनके,असंख्य वादे तो ज़रूर हुए
कानूनी किताब की इबारतें,क्यों ना लोगों को मंज़ूर हुए
शिक्षित समाज का हिस्सा होकर,हम भी तो पेड़ खजूर हुए
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